________________
[श्री महावीर-वचनामृत । असयमी पुरुष काया से अशक्त होने पर भी मन, वचन और काया से अपने लिये तथा दूसरों के लिये हिंसा करता है और करवाता है।
एयं सकम्मवीरियं, बालाणं तु पवेइयं । इत्तो अकम्म विरियं, पंडियाणं सुणेह मे ॥६।।
[सू० अ० १, अ०८, गा०६] इस प्रकार वाल जीवो के सकर्मवीर्य का वर्णन किया। अव पण्डितों के अकर्मवीर्य का वर्णन करता हूं, वह मुझसे सुनो।
दनिए बंधणुमुके, सबओ छिन्नबंधणे । घणोल्ल पावकं कम्म, सल्लं कंतइ अन्तसो ॥७॥
[सू० श्रु० १, अ० ८, गा० १०] भव्य पुरुष राग-द्वष के बन्धन से मुक्त होते हैं, कषायरूपी बन्धनों का सर्वथा उच्छेदन कर देते है तथा सभी प्रकार के पापकर्मों से निवृत्त होकर अपनी आत्मा से लगे हुए शल्यों को जड मूल से उखाड डालते हैं।
नेयाउयं सुयक्खायं, उवादाय समीहए । भुजो भुञ्जो दुहावासं, असुहत्तं तहा तहा ॥८॥
[सू० श्रु० १, अ० ८, गा० ११] तीर्थङ्करों द्वारा कथित सम्यगदर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपी मोक्षमार्ग को गहण कर उसमे पूर्णरूप से पुरुषार्थ को स्फुरित करना चाहिये। (यही पण्डितवीर्य है और इसका परिणाम सुखदायी है, जब कि) बालवीर्य पुनः पुनः दुःखदायी है। वह जैसे-जैसे स्फुरित होता जाता है, वैसे-वैसे दुःख बढता जाता है।