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धारा: ३६:
लेश्या किण्हा नीला प काऊ य, तेऊ पम्हा तहेव य । सुकलेसा य छट्ठा य, नामाइं तु जहकमं ॥१॥
[उत्त० अ० ३४, गा०३] छओ लेश्याओ के नाम अनुक्रम से इस प्रकार है-(१) कृष्णलेश्या, {२) नीललेश्या, (३) कापोतलेश्या, (४) तेजोलेश्या, (५) पद्मलेश्या और (६) शुक्ललेश्या।
विवेचन-आत्मा का सहज रूप स्फटिक के समान निर्मल है। किन्तु कृष्ण आदि रगवाले पुद्गलो के सम्वन्च से उस का जो परिणाम होता है, उसको लेश्या कही जाती है। ये लेश्याये कर्मों की स्थिति का कारण है [ कर्मस्थितिहेतवो लेश्याः]। तेरहवे गुणस्थानक तक इन लेश्याओ का सद्भाव रहता है, और जिस समय यह आत्मा अयोगी बनती है, अर्थात चौदवे गुणस्थान को प्राप्त करती हैं, उसी समय वह लेश्याओ से रहित हो जाती है।
जीमूयनिद्धसंकासा, गवलरिट्ठगसन्निभा। खंजांजणनयणनिभा, किण्हलेसा उ वण्णओ ॥२॥