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[श्री महावीर-वचनामृत
जितना कटु रस कोडे तूवे, निम्ब और कटुरोहिणी का होता है, उससे भी अनन्तगुण अधिक कटु रस कृष्णलेश्या का होता है।
नीललेश्या के रस को मघ, मिर्च और सोंठ तथा गजपीपल के रस से भी अनन्तगण तीक्ष्ण समझना चाहिये।
कापोतलेश्या के रस को कच्चे आम के रस, तुवर और कैथ के रस से भी अनन्तगुण खट्टा समझना चाहिये।
तेजोलेश्या के रस को पके हुए आम्रफल अथवा पके हुए कैथ के रस से भी अनन्तगुण खट्टा-मीठा समझना चाहिये।
पद्मलेश्या के रस को प्रधान मदिरा, नाना प्रकार के आसव तथा मधु और मैरेयक नाम की मदिरा से भी अनन्तगुण मधुर समझना चाहिये।
शुक्ललेश्या के रस को खजूर, दाख, दूध, खाँड और शक्कर के रस से भी अनन्तगुण मोठा समझना चाहिये।
जह गोमडस्स गंवो, सुणगमडस्स व जहा अहिमडस्स । एत्तो वि अर्णतगुणो, लेसाणं अप्पसत्याणं ॥१४॥ जह सुरहिकुसुमगंधो, गंधवासाण पिस्समाणाणं ।। एत्तो वि अणंतगुणो, पसत्थलेसाण तिण्हं पि ॥१॥
[उत्त० अ० ३४, गा० १६-१७] जैसी खराव गन्च मृतक गौ, अथवा मरे हुए कुत्ते की, अथवा मरे हुए सर्प को होती है, उससे भी अनन्तगुण अधिक खराव गन्ध अप्रशस्त लेश्याओं की होती है।