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[श्री महावीर-वचनामृत जिसने सिर मुंडवाया उसने शरीर सम्बन्धी सारी शोभा, सारे ममत्व का परित्याग कर दिया ऐसा समझा जाता है। .
जया मुण्डे भवित्ताणं, पन्चयइए अणगारियं । तया संवरमुक्किटुं, धम्मं फासे अणुत्तरं ॥६॥
[ दश० अ०४, गा० १६] जब साधक मस्तक का मुण्डन करवा कर अणगार धर्म मे प्रवजित होता है, तब उत्कृष्ट सयमरूपी धर्म का सर्वोत्तम ढग से आचरण कर सकता है।
जया संवरमुकिलु, धम्मं फासे अणुत्तरं।। तया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलुसं कडं ॥१०॥
[दश० अ० ४, गा० २०] जब साधक उत्कृष्ट सयमरूपी धर्म का सर्वोत्तम रूप से आचरण __ करता है, तव मिथ्यात्वजनित कलुषित भावो से उत्पन्न कर्मरज को दूर कर देता है।
जया धुणइ कम्मरयं, अवोहिकलुसं कडं । तया सवत्तगं नाणं, दसणं चाभिगच्छइ ॥११॥
[दश० अ० ४, गा० २१] जब सावक मिथ्यात्वजनित कलुषित भावों से उत्पन्न कर्मरज को दूर कर देता है, तव सर्वव्यापी ज्ञान ( केवलज्ञान ) और सर्वव्यापी न (केवलदर्शन ) को प्राप्त कर सकता है।