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[ भगवान् महावीर
-रहना, (३) जहाँ तक हो मोन रहना, (४) भोजन किसी पात्र की अपेक्षा हाथ से ही करना और (५) गृहस्थ से अनुनय-विनय नही
करना ।
भगवान् दक्षप्रतिज्ञ थे, अतः उन्होंने इन नियमों का पूर्णतया पालन किया ।
योग तो अभ्यास से ही सिद्ध होता है । यह मानकर वे योगाभ्यास मे दत्तचित्त रहते थे ओर क्रमशः उसकी प्रक्रियाएं सिद्ध करते थे । भगवान् की यह धारणा थी कि आसनसिद्धि के बिना काययोग मे स्थिरता होना कठिन है । तथा शीत, आतप, वायु, कुहासा एव अनेकविध जन्तुओ के द्वारा उत्पन्न उपद्रव की परिस्थिति मे निश्चिन्त रहने के लिये भी आसनसिद्धि की पूर्ण उपादेयता है, - कारण भगवान् ने सर्वप्रथम लक्ष्य आसन-सिद्धि की ओर किया था तथा कुछ आसन भी सिद्ध कर लिये थे । इस सम्बन्ध मे 'आचाराग सूत्र' मे लिखा है कि 'भगवान् चञ्चलता से रहित अवस्था मे रहकर अनेक प्रकार के आसनों में स्थिर होकर ध्यान करते थे और समाधिदक्ष तथा आकाक्षा-विहीन हो ऊर्ध्वं अघ, एव तिर्यग् लोक का विचार करते थे ।'
इस
'श्री उत्तराध्ययनसूत्र' के तीसवें अध्ययन में कहा है - 'वीरासन -आदि आसन जीव के द्वारा सुख पूर्वक किये जा सके, ऐसे हैं । और वे जब उग्र रूप में धारण किये जायें तो कायक्लेश नाम का तप माना जाता है ।' *
ठाणा वीरासणाईया, जीवस्स उ सहावहा । उग्गा जहा धरिज्जन्ति, कायकिलेस तमाहिय ॥२७॥