________________
[श्री महावीर-वचनामृत नीवारे व न लीएज्जा, छिन्नसोए अणाविले । अणाइले सया दंते, संधिपत्त अणेलिसं ॥१७॥
[सु० ५० १, म० १५, गा० १२] विषय-वासना तथा इन्द्रियों को जीतकर जो छिन्नस्रोत (संसार के प्रवाह को काटनेवाले ) बन गये हैं, साथ ही राग-द्वप रहित हैं, वे भूलकर भी कदापि स्त्रीमोह मे न फसे । क्योंकि स्त्रीमोह सूअर को फंसानेवाले चावल के दाने के समान है। जो पुरुष विषयभोग मे अनाकुल और सदा सर्वदा अपनी इन्द्रियो को वश मे रखनेवाला है, वह अनुपम भावसन्धि (कर्मक्षय करने की मानसिक दगा) को प्राप्त होता है।
आलओ थीजणाइण्णो, थीकहा च मणोरमा । संथवो चेव नारीणं, तेसिं इंदियदरिसणं ॥१८॥ कूइ रुइझं गीअं, हासभुत्तासिआणि य । पणी भत्तपाणं च, अइमायं पाणभोअणं ॥१६॥ गत्तभूसणमिटुं च, कामभोगा य दुञ्जया । नरस्मत्तगवेगिस्स, विसं तालउडं जहा ॥२०॥
[उत्त० अ० १६, गा० १६-१२-६३] (१) स्त्रियों से व्याप्त स्थान, (२) स्त्रियों की मनोहर कथाए, (३) स्त्रियों का परिचय, (४) स्त्रियों के अजोपाग का निरीक्षण, (५) स्त्रियों के मधुर गन्द, दन, गीत, हंसी आदि का श्रवण, (६) पूर्वकाल मे मुक्त भोगो तथा अनुभूतविपयों का स्मरण,