Book Title: Mahavira Vachanamruta
Author(s): Dhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

View full book text
Previous | Next

Page 437
________________ धारा : ४० : शिक्षापद इह माणुस्सए ठाणे, धम्ममाराहि नरा ॥१॥ [सू० श्रु० १, अ० १५, गा० १५ ] इस मनुष्य-लोक मे धर्म की आराधना करने के लिये ही मनुष्यों की उत्पत्ति है। जाइमरणं परिन्नाय, चरे संकमणे दढे ॥२॥ [मा० ध्रु० १, भ० २, उ०३] जन्म-मरण के स्वरूप को भलीभाति जानकर चारित्र मे हड होकर विचरे। कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं ॥३॥ [माः ध्रु० १, भ० ४, उ० ३] (तपश्चरण द्वारा ) अपने आपको पेश करो, अपने आपको जीर्ण करो। सन्चं सुचिण्णं सफलं नाणं ॥४॥ [उसः १३. गा० १०] मनुष्यो का अच्छा जिग हुना नव पर्म कफ होता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463