Book Title: Mahavira Vachanamruta
Author(s): Dhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 438
________________ ४१२] [श्री महावीर वचनामृत संसयं खलु सो कुणई, जो मग्गो कुणई धरं। जत्थेव गन्तुमिच्छेज्जा, तत्थ कुविज सासयं ॥१॥ [उत्त० अ० ९, गा० २६] जो पुरुष मार्ग मे घर बनाता है, वह निश्चय ही संशय-ग्रस्त कार्य करता है। जहाँ पर जाने की इच्छा हो वही पर गाश्वत घर वनाना चाहिये। वेराइं कुबई वेरी, तओ वेरेहिं रजई । पावोवगा य आरंभा, दुक्खफासा य अन्तसो ॥६॥ [सू० श्रु० १, म०८, गा०७] एक मनुष्य ने किसी के साथ वैर किया, फिर वह अनेक प्रकार के वैर करता है और इन वैरों से खुशी होता है, किन्तु वह जानता नही कि सभी दुष्प्रवृत्तियाँ पापमय होती हैं और अन्त मे वे दुःख का ही अनुभव कराती हैं। किरिअं रोअए धीरो, अकिरिअं परिवज्जए । दिट्ठीए दिट्ठीसम्पन्ने, धम्म चर सुदुच्चरं ॥७॥ [उत्त० म०१८, गा० ३३] धीर पुरुष क्रिया मे रुचि करे और अक्रिया का परित्याग कर देवे। वह सम्यग् दृष्टि से दृष्टि-सम्पन्न होकर धर्म का आचरण करे जो कि अतिदुष्कर है। कोहं माणं निगिम्हित्ता, मायं लोभं च सबओ । इंदियाइं वसे काउं, अप्पाणं उपसंहरे ॥८॥ [उत्त० अ० २२, गा०४८]

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