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[श्री महावीर-वचनामृत नेव पल्हत्थियं कुजा, पक्खपिडं च संजए । पाए पसारिए वावि, न चिट्टे गुरुणन्तिए ॥३७॥
[उत्त० अ० १, गा० १९] शिष्य गुरु के समक्ष पाँव पर पाँव चढाकर, छाती से घुटने सटा कर, एवं पैर फैला कर न बैठे।
आयरिएहिं वाहित्तो, तुसिणीओ न कयाइ वि । पसायपेहि नियागट्ठी, उवचिढे गुरु सया ॥३८॥
[उत्त० अ० १, गा० २०] आचार्यों द्वारा बुलाये जाने पर शिष्य कभी मौन का अवलम्बन न करे, बल्कि गरुकृपा और मोक्ष का अभिलापी ऐसा गिष्य उनके समीप विनय से जाए।
आलवंते लवंते वा, न निसीएज्ज कयाइ वि। चऊणमासणं धीरो, जओ जत्तं पडिस्सुणे ॥३६॥
[ उत्त० अ० १, गा०२१] गुरु एक बार आवाज दें अथवा वार-बार यावाज दें, किन्तु वुद्धिमान् साधु कभी भी अपने आसन पर बैठा न रहे। वह अपना आसन छोडकर यतनापूर्वक गुरु के निकट जाए और उन्हें क्या कहना है, वह विनयपूर्वक सुने । आसणगओ न पुच्छेज्जा,
नेव सेज्जागओ कया।