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[श्री महावीर-वचनामृत अट्टरुदाणि वजिता, धम्मसुक्काणि झायए । पसंतचित्त दंतप्पा, समिए गुत्ते य गुत्ति सु ॥२८॥ मरागो चीयरागो वा, उवसंते जिइंदिए । एयजोगसमाउत्तो, सुकलेसं तु परिणमे ॥२६॥
[उत्त० म० ३४, गा० ३१-३२ ] आर्त और रुद्र इन दो ध्यानो को त्याग कर जो पुरुष धर्म और शुक्ल इन दो ध्यानों का आसेवन करता है तथा प्रगान्तचित्तदमितेन्द्रिय, पाँच समितियों से समित, तीन गुप्तियों से गुप्त एवं अल्परागवान् अथवा वीतरागी, उपगमनिमग्न और जितेन्द्रिय है वह शुक्ललेश्या से युक्त होता है। किण्हा नीला काऊ, तिन्नि वि एयाओ अहम्मलेसाओ। एयाहि तिहि वि जीवो, दुग्गइं उववजई ॥३०॥
[उत्त० अ० ३४, गा०५६] कृष्ण, नील और कापोत ये तीनों अधर्मलेश्या हैं। इन लेश्याओं से यह जीव दुर्गति मे उत्पन्न होता है। तेऊ पम्हा सुक्का, तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाओ । एयाहि तिहि वि जीवो, सुग्गइं उबवञ्जई ॥३१॥
[उत्त० अ० ३४, गा० ५७] तेज, पद्म और शुक्ल, ये तीनों धर्मलेश्या हैं। इन लेश्याओं से यह जीव सद्गति मे उत्पन्न होता है।