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महाचर्य]
धम्मलद्धं मियं काले, जत्तत्थं पणिहाणवं । नाइमत्तं तु भुजिजा, बंभचेररओ सया ॥४३॥
[उत्त० अ० १६, गा०८] ब्रह्मचर्यानुरागी साधक को चाहिए कि भिक्षा के समय शुद्ध एषणा द्वारा प्राप्त आहार को ही स्वस्थ चित्त होकर सयम-यात्रा के लिये परिमित मात्रा मे ग्रहण करे, किन्तु अधिक मात्रा मे ग्रहण न करे।
विभूसं परिवज्जेजा, सरीरपरिमंडणं । चंभचेररओ भिक्खू, सिंगारत्थं न धारए ॥४४॥
[उत्त० भ० १६, गा०६] ब्रह्मचर्यप्रेमी साधक हमेशा आभूषणो का त्याग करे, शरीर की शोभा बढाये नही तथा शृगार सजाने की कोई क्रिया करे नहीं।
सई रूवे य गंधे य, रसे फासे तहेव य । पंचविहे कामगुणे, निच्चसो परिवज्जए ॥४५॥
[उत्त० अ० १६, गा० १०] ब्रह्मचर्यप्रेमी साधक को शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्शादि इन पांच प्रकार के काम-गुणो का सदा के लिये त्याग कर देना चाहिये।
दुज्जए कामभोगे य, निच्चसो परिवज्जए । संकाठाणाणि सवाणि, वज्जेज्जा पणिहाणवं ॥४६॥
[उत्त० अ० १६, गा० १४] एकान मन रखनेवाला ब्रह्मचारी दुर्जय कामभोगो को सदा के लिये त्याग दे और सर्व प्रकार के शकास्पद स्थानो का परित्याग करे।