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तपश्चर्या ]
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एवं तवं तु दुविहं, जे सम्म आयरे मुणी | सो खिप्पं सव्वसंसारा, विष्पमुच्चड़ पंडिओ ||७||
[ उत्त० अ० ३८, गा० ३७ ] जो पण्डित मुनि वाह्य और आभ्यन्तर ऐसे दोनो प्रकार के तप का सम्यग् आचरण करता है, वह समस्त नसार से शीघ्र ही हो जाता है ।
मुक्त