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शिल्पथाला में]
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अपकारी जनो के प्रति भी अत्यन्त क्रोध न करनेवाली, कृतज्ञतागुण की स्वामिनी, दुष्ट वृत्तियो द्वारा अदमनीय चित्तवाली, देव तथा गुरु का बहुमान करनेवाली और गम्भीर आशय से परिपूर्ण होती है। उनका सहज तथाभव्यत्व तदनुकूल सामग्री के सयोग से जैसेजैसे परिपक्व होता रहता है, वैसे ही उनकी उत्तमता बाहर प्रकट होती रहती है। इस प्रकार भगवान् महावीर मे ये सभी गुण उत्कृष्ट रूप में विकसित हए थे; ऐसा माने तो कोई अनचित न होगा। • शिल्पशाला में
उस समय विदेह मे क्षत्रिय कुमारो को शिक्षण देने के लिये विशिष्ट शिल्पशालाएं थी। उनमे क्षत्रिय कुमारो को अक्षरज्ञान, व्यवहारोपयोगी गणित तथा अनेक प्रकार की कलाएं सिखाई जाती थी और युद्धविद्या के सिद्धान्त तथा प्रयोगो का ज्ञान, एव धनुर्विद्या की उच्चकोटि की शिक्षा भी दी जाती थी। फलतः क्षत्रियकुमार युद्ध मे अति निपुण होते थे और अक्षणवेधी तथा बालवेधी बनते थे, अर्थात् क्षण मात्र मे किसी भी वस्तु का वेध कर सकते थे और केश जैसे सूक्ष्म वस्तु पर भी लक्ष्यसन्धान करने मे सफलता पाते थे।
क्षत्रियो की अधिक बस्ती होने के कारण क्षत्रियकुण्ड मे ऐसी एक शिल्पशाला थी और वह वहाँ के क्षत्रियकुमारो को उपयुक्त सभी प्रकारो की शिक्षा देती थी। भगवान् महावीर को आठ वर्ष की आयु में इस शिल्पशाला मे प्रविष्ट किया गया, किन्तु वहाँ उनका मन
श्रीहरिभद्रसूरि कृत 'ललितविस्तरा' 'चैत्यवन्दनवृत्ति' । •बौद्धग्रन्थ ओपम्मसंयुत की अट्ठकथा ।