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कर्मवाद]
[४६ कषाय, आदि दोष ही है। कर्म-फल भोगने के लिये आत्मा को ससार मे परिभ्रमण करना पड़ता है, इसलिए कर्मबन्धन ही ससारवृद्धि का कारण है।
सर्व प्रथम आत्मा कर्मरहित था और बाद मे कर्मबन्धन हुआ, ऐसा नही है । यदि हम यह मान ले कि शुद्ध आत्मा को भी कर्म का बन्धन होता है तो सिद्ध जीवों को भी कर्म-बन्धन का प्रसङ्ग आता है, जो कतई उचित नही है। अतः यह मानना ही उचित होगा कि आत्मा आरम्भ से ही कर्मयुक्त थी और कर्मबन्धन के कारण विद्यमान होने से वह कर्म बांधती ही रही तथा उसका फल भोगती रही। सोना जब खदान मे रहता है, तब मिट्टी से युक्त रहता है। अर्थात् खदान मे सोना और मिट्टी दोनो का मिश्रण होता है। बाद मे उस पर रासायनिक प्रक्रिया होने से मिट्टी पृथक् हो जाती है
और शुद्ध सोना पृथक् निकल आता है, ठीक यही बात आत्मा के बारे में भी समझनी चाहिए। संयम, तप आदि रासायनिक क्रिया के
आत्मा पर लिपटे हुए कर्मावरण दूर हो जाते है और उसका शुद्ध स्वरूप प्रकट होता है। सबजीवाण कम्मं तु, संगहे छदिसागयं । सम्वेसु वि पएसेसु, सन्नं सवेण बज्झगं ॥२॥
(उत्त० अ० ३३, गा० १८) सभी जीव अपने आसपास छहों दिशाओ मे स्थित कर्मपुद्गलों को ग्रहण करते हैं और आत्मा के सर्वप्रदेशों के साथ सर्वकर्मों का सर्वप्रकार से बन्धन हो जाता है ।