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[श्री महावीर-वचनामृत देवाणं मणुयाणं च, तिरियाणं च बुग्गहे। अमुगाणं जओ होउ, मा वा होउ त्ति नो वए ॥२०॥
[दशु० म०७, गा० ५०] देवता, मनुष्य तथा तिर्यचों में जब परस्पर युद्ध हो, तब इसकी जय हो और इसकी पराजय हो, ऐसा नहीं बोलना चाहिये।
विवेचन-क्योंकि इस प्रकार के वचनोच्चार से एक प्रसन्न होता है और दूसरा रुष्ट । ऐसी दुःखद परिस्थिति उपस्थित करना प्रज्ञाशाली सावक के लिये उपयुक्त नही है। अपुच्छिओ न भासेज्जा, भासमाणस्स अंतरा। पिट्टिमंसं न खाएज्जा, मायामोसं विवज्जए ॥२१॥
[दश० स०८, गा० ४७ ] संयमी सावक विना पूछे उत्तर न दे, अन्य लोग वाते करते हो तो उनके बीच में न वोले, पीठ पीछे किसी को निन्दा न करे तथा बोलने मे कपयुक्त असत्यवाणी का प्रयोग न करे। जणवयसम्मयठवणा,
नामे रूवे पडुच्चे सच्च य। ववहारभावजोगे,
दसमे ओवम्मसच्चे य ॥२२॥
[प्रज्ञापना सूत्र-भाषा पदा सत्यवचनयोग के दस प्रकार हैं:-(१) जनपद-सत्य, (२) सम्मत-सत्य, (३) स्थापना सत्य, (४) नाम-सत्य, (५) रूप-सत्य,