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धारा ४:
कर्मवाद - नो इंदियगेज्ज्ञ अमुत्तभावा,
अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो। अज्झत्थहेडं निययस्स बंधो, संसारहेउं च वयंति बंधं ॥१॥
[उत्त० अ० १४, गा० १६] आत्मा अमूर्त है, अतः वह इन्द्रियग्राह्य नही है। अमूर्त होने के कारण ही आत्मा नित्य है। मिथ्यात्व आदि कारणो से आत्मा को कर्मबन्धन होता है और कर्मवन्धन को ही संसार का कारण कहा जाता है।
विवेचन-जिसमे वर्ण, रस, गन्च और स्पर्श हो वही वस्तु मूर्त हो सकती है, परन्तु आत्मा मे वर्ण, रस, गन्ध अथवा स्पर्श आदि नही है, इसलिये वह अमूर्त है और यही कारण है कि वह इन्द्रियों से ग्रहण करने योग्य नहीं है। साथ ही अमूर्त वस्तु नित्य होती है, जैसे कि आकाश, इस प्रकार आत्मा नित्य है। ऐसी अमूर्त और नित्य आत्मा को कर्मबन्वन होने का मूल कारण मिथ्यात्व, अविरति,