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[श्री महावीर-वचनामृत "बन्धन से मुक्त होना" यह कार्य अपनी आत्मा से ही होता है । एगभूओ अरण्णे वा, जहा उ चरई मिगो। एवं धम्मं चरिस्सामि, संजमेण तवेण य ॥१६॥
[उत्त० अ० १६, गा० ७८] (विरक्त मनुष्य को ऐसी भावना होनी चाहिये कि ) जैसे मृग अरण्य मे अकेला ही विचरता है, उसी प्रकार मैं भी चारित्ररूप वन मे सयम और तप के साथ धर्म का पालन करता हुआ एव आत्मा को अकेली मानता हुआ विचरण करूंगा। तं मा णं तुम्भे देवाणुप्पिया,
माणुस्सएसु कामभोगेसु । सजह रज्जह गिज्झह, मुज्झह अज्झोववज्जह ॥२०॥
[ज्ञा० अ०८] इसलिये हे देवानुप्रिय ! तू मानुषिक कामभोगो मे आसक्त न बन, रागी न बन, गृद्ध न बन, मूच्छित न वन और अप्राप्त भोग प्राप्त करने की लालसा भी न कर ।