________________
अपरिग्रह]
[ १७१
है-ऐसा समझ कर [ सयमानुष्ठान द्वारा ] कर्म से मुक्त होना चाहिये। कसिणं पि जो इमं लोयं,
पणिपुण्णं दलेज इक्कस्स । तेणाऽवि से न संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे आया ॥१२॥
[उत्त० भ०८, गा० १६ ] यदि धन-धान्य से परिपूर्ण यह सारा जगत् किसी मनुष्य को दे दिया जाय तो भी इससे उसे सन्तोष नही होगा। लोभी आत्मा को तृष्णा इस प्रकार शान्त होनी अत्यन्त कठिन है। सुवण्णरूपस्स उ पचया भवे,
सिया हु केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणंतिआ॥१३॥
[उत्त० अ० ६, गा० ४८] कदाचित् सोने और चांदी के कैलास के समान असख्य पर्वत बन जाँय तो भी वे लोभी मनुष्य के लिये कुछ भी नही हैं । वास्तव में इच्छा आकाश के समान अनन्त है। वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते,
इमम्मि लोए अदुवा परत्था ।