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धारा : १५.
अपरिग्रह धणधन्नपेसवग्गेसु, परिग्गहविवज्जणं । सवारंभपरिचाओ, निम्ममत्तं सुदुक्करं ॥१॥
[उत्त० अ० १६, गा० २६] धन, धान्य, नौकर-चाकर आदि का परिग्रह छोडना, सर्व हिंसक प्रवृत्तियो का त्याग करना और निर्ममत्व भाव से रहना, यह अत्यन्त दुष्कर है।
चित्तमंतमचित्तं वा, परिगिज्झ किसामवि । अन्नं वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खाण मुच्चइ ।।२।।
[सू० श्रु० १, अ० १, उ० १, गा० २] जो सजीव अथवा निर्जीव वस्तु का स्वय सग्रह करता है और दूसरे के द्वारा भी ऐसा ही सग्रह करवाता है अथवा अन्य व्यक्ति को ऐसा परिग्रह करने की सम्मति देता है, वह दुःख से मुक्त नही होता । अर्थात् संसार मे अनन्त काल तक परिभ्रमण करता रहता है। परिव्वयन्ते अणियत्तकामे,
अहो य राओ परितप्पमाण ।