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कुशिष्य]
[ २८७ अनुशासन मे रखू ? ऐसा विचार आचार्य को खेदपूर्वक करना पड़ता है।
सो वि अंतरभासिल्लो, दोसमेव पकुवई । आयरियाणं तु वयणं, पडिकूलेइऽभिक्खणं ॥१०॥ कुशिष्य बीच मे बोल उठता है, अपने गुरु अथवा अन्य साधुओ पर मिथ्या दोषारोपण करता है और आचार्य के वचनो के विपरीत बार-बार व्यवहार करता है।
न सा ममं वियाणाइ, न सा मज्झ दाहिई । निग्गया होहिई मन्ने, साहू अन्नोऽत्थ वज्जउ॥११॥ (भिक्षा के लिये जाने का आदेश देने पर प्रत्युत्तर मे कुशिष्य कहता है कि ) वह श्राविका मुझे नही पहचानती, वह मुझे आहार नही देगी, मैं मानता हूँ कि वह घर भी नही होगी। अच्छा हो कि आप अन्य साचु को ही भेज दे।
पेसिया पलिउचन्ति, ते परियन्ति समंतओ।
रायवेढि व मन्नंता, करेन्ति भिउडिं मुहे ॥१२॥ कुशिष्य जिस कार्य के लिये भेजे गये हो वह कार्य करते नहीं और आकर मनगढन्त उत्तर दे देते हैं। वे इधर-उधर भटकते रहते हैं किन्तु गुरु के पास बैठते नहीं । कभी-कभी कार्य करते भी है तो राजा की बेगारी के समान करते हैं और मुंह बिगाड़ते हैं।