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प्रमाद]
[ ३१५ अवसोहिय कटगापह,
___ ओइण्णोऽसि पहं महालयं । गच्छसि मग्गं विसोहिया, समयं गोयम ! मा पमायए ॥२॥
[उत्त० अ० १०, गा० ३२] कुतीर्थरूपी कण्टकमय मार्ग को छोडकर तू मोक्ष के विराट मार्ग पर आया है। अतः विशुद्धमार्ग पर जाने के लिये हे गौतम ! तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर । अवले जह भारवाहए,
मा मग्गे विसमेऽवगाहिया। पच्छा पच्छाणुतावए, समयं गोयम ! मा पमायए ॥२६॥
[उत्त० अ० १०, गा० ३३ ] जैसे निर्बल भारवाहक विषम मार्ग पर नही चलता, और कदाचित् चलता भी है तो बाद मे पछताता है, वैसे हो सयम का भार वहन करनेवाले को चाहिये कि वह विषयमार्ग पर न चले। कदा. चित् चला भी जाय तो बाद मे पश्चात्ताप करे, इसलिये हे गौतम ! तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर । तिण्णो हु सि अण्णवं महं,
किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ।