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[श्री महावीर-वचनामृत ___ इडिं च सकारणपूयणं च, चए ठिअप्पा अणिहे ज स भिक्ख् ॥१६॥
[दश० म० १०, गा ] जो अलोलुप हो, किसी प्रकार के रसों मे आसक्त न हो, अपरिचित गृहों से आहारादि ग्रहण करता हो, जो जीवितव्य के प्रति मोह न दिखलाता हो, जो अपने यश, सत्कार और पूजा का त्याग करनेवाला हो, जिसकी आत्मा स्थिर हो और आकाक्षारहित हो, उसे ही सच्चा भिक्षु समझना चाहिये। न परं वइज्जासि अयं कुसीले,
___ जेणं च कुप्पेज न तं वइज्जा । जाणिय पत्तयं पुण्ण-पावं, __ अचाणं न समुक्कसे ज स भिक्ख ॥१७॥
दिश० स० १० गा० १८] 'यह कुशील है' ऐसा शब्द दूसरो को न कहता हो, सामनेवाला व्यक्ति क्रुद्ध होवे ऐसे वचन न बोलता हो, जो प्रत्येक आत्मा स्वयंकृत पाप अथवा पुण्य के फल भोगती है, ऐसा जानता हो और जो अपने गुणो को वडाई न करता हो, उसे ही सच्चा भिक्षु समझना चाहिये। __ न जाइमत्ते न य रूवमत्ते,
न लाभमत्ते न सुएण मत्त ।