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मोक्षमार्ग]
[६३ तहियाणं तु भावाणं, सम्भावे उवएसेणं । भावेण सद्दहंतस्स, सम्मत्तं तं वियाहियं ॥६॥
[उत्त ० अ० २८, गा० १५] स्वभाववश अथवा उपदेश के कारण इन तत्त्वो के यथार्थस्वरूप मे भावपूर्वक श्रद्धा रखना, उसे सम्यगदर्शन कहते है।।
विवेचन-सम्यग्दर्शन का अर्थ है तत्त्वो के यथार्थस्वरूप की भावपूर्वक श्रद्धा । वह स्वभाव से अर्थात् नैसर्गिक रीति से और उपदेश से अर्थात् गुरुजनो के व्याख्यानादि श्रवण करने से यो दो प्रकार से होती है। श्री उमास्वातिवाचक ने तत्त्वार्थधिगमसूत्र के प्रथम अध्याय मे- 'तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शनम्' और 'तन्निसर्गादघिगमाद् वा' इन दो सूत्रों द्वारा उसकी स्पष्टता की है।
परमत्थसंथवो वा, सुदिपरमत्थसेवणा वा। वावन्नकुदंसणवज्जणा य, सम्मत्तसद्दहणा ||
[उत्त० भ० २८, गा० २८] परमार्थसंस्तव, परमार्थज्ञातृसेवन, व्यापन्नदर्शनी का त्याग और कुदर्शनी का त्याग, ये सम्यग् दर्शन से सम्बन्धित श्रद्धा के चार अग है।
विवेचन-परमार्थसस्तव का अर्थ है तत्त्व की विचारणा, तत्त्व सम्बन्धी परिशीलन। परमार्थज्ञातृसेवन का अर्थ है तत्त्व को जाननेवाले गीतार्थ गुरुजनों के चरणों की सेवा । व्यापन्नदर्शनी का अर्थ है जो एक बार सम्यक्त्व से युक्त हो, किन्तु किसी कारणवश उससे