________________
६२]
[श्री महावीर-वचनामृत
मानसिक विकार उत्पन्न होता है, वैसे ही मोहनीय-कर्म के कारण आत्मा की निर्मल श्रद्धा का विपर्यास हो जाता है और शुद्ध चारित्र मे विकृति उत्पन्न होती है। __जिस कर्म के फलस्वरूप आत्मा को एक शरीर मे नियत समय तक रहना पड़े उसे आयुकर्म कहते हैं । यह कर्म कैद जैसा है। जैसे कैद मे डाला हआ मनुष्य उसकी अवधि पूरी होने से पूर्व मुक्त नही हो सकता, वैसे ही आयुकर्म के कारण आत्मा तदर्थ नियत अवधि को पूर्ण किये विना धारण की हुई देह से मुक्त नही हो सकता।
जिस कर्म के परिणामस्वरूप आत्मा मूर्तावस्था को प्राप्त हो तथा शुभाशुभ शरीर को धारण करे उसे नामकर्म कहते हैं। यह कर्म चित्रकार जैसा है। चित्रकार जैसे विविध रगो से चित्रों का निर्माण करता है, वैसे ही नामकर्म आत्मा के लिये धारण करने योग्य ऐसे अच्छे बुरे भिन्न-भिन्न रूप, रग, अवयव, यश, अपयश, सौभाग्य, दुर्भाग्य आदि का निर्माण करता है।
जिस कर्म के द्वारा आत्मा को उच्च-नीचावस्था प्राप्त हो, उसे गोत्रकर्म कहते हैं। यह कर्म कुम्हार जैसा है। कुम्हार जैसे मिट्टी के पिंड से छोटे और बडे पात्र बनाता है, वैसे ही इस कर्म के द्वारा जीव को उन्नकुल मे अथवा नीचकुल मे जन्म धारण करना पडता है।
जिस कर्म के द्वारा आत्मा की लब्धि-(शक्ति ) मे विघ्न उपस्थित हो, उसे अन्तरायकर्म कहते हैं। यह कर्म राजा के भण्डारी जैसा है। राजा की आज्ञा मिल चुकने पर भी जैसे भण्डारी के दिये विना भण्डार मे रही सागग्री प्राप्त नही होती, वैसे ही अन्तराय कर्म