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काम-भोग]
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सव्वं विलवियं गीयं, सव्वं नर्से विडंपियं । सब्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा ॥२०॥
[उत्त० अ० १३ गा० १६] ( कामवासना का पोषण करनेवाले तथा बढानेवाले ) सभी गीत विलाप तुल्य हैं, सभी नृत्य बिडम्बना के समान है और सर्व आभूषण भाररूप है। इसी तरह सर्वप्रकार के काम-भोग अन्त मे दुःख को ही लानेवाले हैं। अच्चेइ कालो तूरन्ति शइओ,
न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा । उविच्च भोगा पुरिसं चयन्ति, ___ दुमं जहा खीणफलं व पक्खी ॥२१॥
[उत्त० अ० १३, गा० ३१ ] समय बहता जाता है, रात्रियाँ व्यतीत हाती जाती है और पुरुषों के कामभोग भी नित्य नही हैं। जैसे पक्षो फलहीन वृक्षों को छोड़ देते है, वैसे ही कामभोग भी क्षीण शक्तिवाले पुरुषों के पास आकर उनको छोड़ देते हैं। पुरिसोरम पावकम्मुणा, पलियन्तं मणुयाण जीवियं । सन्ना इह काममुच्छिया, मोहं जन्ति नरा असवुडा ॥२२॥
[सू० अ० १, अ० २, उ, गा० १०] हे मनुप्य ! तू जीवन को शीघ्रगामी मानकर पापकर्मो से विरत