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भहिंसा]
[१२३ एयं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंचण ।। अहिंसा समयं चेव, एयावन्तं वियाणिया ॥६॥
[सू. श्रु० १, अ० ११, गा० १०] ज्ञानियो के वचन का यह सार है कि-'किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो। अहिंसा को ही शास्त्रकथित शाश्वत धर्म समझना चाहिए। संबुज्झमाणे उ नरे मइमं,
पावाउ अप्पाण निवट्टएज्जा । हिंसप्यसूयाइं दुहाई मत्ता,
वेरानुवन्धीणि महब्भयाणि ॥१०॥
[सू० उ० १, अ० १०, गा०२१] दुःख हिंसा से उत्पन्न हुए है, बैर को कराने तथा बढानेवाले है और महाभयङ्कर है-ऐसा जानकर मतिमान् मनुष्य अपने आप को हिंसा से बचावे।
सयं तिवायए पाणे, अदुवाऽन्नेहिं धायए। हणन्तं वाऽणुजाणाइ, वेरं वड़ई अप्पणो ॥११॥
[सू० श्रु० १, अ० १, उ० १, गा० ३] परिग्रह मे आसक्त मनुष्य स्वय प्राणी का हनन करता है, दूसरे के द्वारा हनन करवाता है और हनन करनेवाले का अनुमोदन करता है-इस तरह अपना बैर बढाता है।