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[श्री महावीर-वचनामृत जाव न एइ आएसे, ताव जीवइ से दुही । अह पत्तम्मि आएसे, सीसं छत्तण भुञ्जई ॥११॥ जहा से खलु ओरन्भे, आएसाए समीहिए । एवं वाले अहम्भिट्ट, ईहई नरयाउयं ॥१२॥
[उत्त० म०७, गा० १ से ४] जैसे कोई पुरुष किसी अतिथि आदि के निमित्त अपने घर मे बकरा को पालता है और उसको जो आदि अच्छे पदार्थ खाने को देता है। बाद मे जब वह बकरा पुष्ट सामर्थ्यवान्, चर्बीवाला, वडा 'पेटवाला और स्थूल देहवाला हो जाता है तब पालक अतिथि की प्रतीक्षा करता है।
जब तक घर मे अतिथि नही आता तव तक वह वकरा जीता है, किन्तु अतिथि के आने पर वह दुःखी सिर छेदन करके खाया जाता है।
जिस तरह वह बकरा अतिथि के लिए कल्पित है, उसी तरह अज्ञानी अधर्मिष्ठ जीव नरकायुष के लिए कल्पित है। तात्पर्य यह कि ऐसा जीव अवश्य नरक मे जाता है।
हिंसे वाले मुसावाई, अद्धाणंमि विलोवए । अन्नदत्तहरे तेणे, माई कं नु हरे सहे ॥१३॥
इत्थीविसयगिद्धे य, महारम्भपरिग्गहे । - भुंजमाणे सुरं मंसं, परिवूढे परंदमे ॥१४॥