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१४ : सम्बााध
तदानुकम्पिना तत्र, न हतः स्यादसौ मया । इति चिन्तयता पादः, त्वया संधारितोऽन्तरा ॥२३॥ २२-२३. खुजलाने के बाद जब तू पांव नीचे रखने लगा तब तूने वहां (पांव से खाली हुए स्थान में)खरगोश को बैठा देखा। त अहिंसा के तत्त्व को जानता था । तेरे में अनुकम्पा (अहिंसा)का भाव जागा । 'खरगोश मेरे पैर से कुचला न जाए'---यह सोच तूने पांव को बीच में ही थाम लिया।
शुभेनाध्यवसायेन, लेश्यया च विशुद्धया। संसारः स्वल्पतां नीतो, मनुष्यायुस्त्वयाजितम् ॥२४॥
२४. शुभ अध्यवसाय (मन की सूक्ष्म परिणति) और विशुद्ध लेश्या (मनोभाव) से तूने संसार-भ्रमण को स्वल्प किया
और मनुष्य होने योग्य आयुष्य कर्म के परमाणुओं का अर्जन किया।
सार्द्धद्वयदिनेनाऽथ, दवः स्वयं शमं गतः।
निर्धूमं जातमाकाशमभया जन्तवोऽभवन् ॥२५॥ २५. ढाई दिन के बाद दावानल अपने आप शान्त हुआ। आकाश निधूम हो गया और वे वन्य-पशु निर्भय हो गए।
स्वच्छन्दं गहने शान्ते, विजह : पशवस्तदा । पलायितः शशकोऽपि, रिक्तं स्थानं त्वयेक्षितम् ॥२६॥
२६. अब वन्य-पशु उस शान्त जंगल में स्वतन्त्रतापूर्वक घमनेफिरने लगे । वह खरगोश भी वहां से चला गया। पीछे तूने वह स्थान खाली देखा।
पादं न्यस्तुं पुनर्भूमौ, सार्द्ध-द्वयदिनान्तरम् ।
स्तम्भीभूतं जडीभूतं, त्वया प्रयतितं तदा ॥२७॥ २७. ढाई दिन के पश्चात् तूने उस खम्भे की तरह अकड़े हुए
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