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अध्याय १ : १३
पेड़ और पौधे उखाड़ डाले और उस स्थल को हथेली के तल जैसा साफ बना दिया ।
एकदा वह्निरुद्भूत, आरण्याः पशवस्तदा । निर्वैराः प्राविशंस्तत्र, हिंस्रास्तदितरे तथा ॥१८॥
१८. एक बार वहां दावानल सुलगा | उस समय जंगल के हिंस्र और अहिंस्र सभी पशु आपस में वैर छोड़कर उस स्थल में घुस आए ।
यथैकस्मिन् बिले शान्ता निवसन्ति पिपीलिकाः । अवात्सुः सकलास्तत्र, तथा वह्नर्भयताः ॥ १६ ॥
१६. जैसे एक ही बिल में वैसे ही दावानल से डरे हुए पशु लगे ।
चींटियां शान्तभाव से रहती हैं, शान्त रूप से उस स्थल में रहने
मण्डलं स्वल्पकालेन, जातं जन्तुसमाकुलम् । वितस्तिमात्रमप्यासीत्, न स्थानं रिक्तमद्भुतम् ॥२०॥
२०. थोड़े समय में वह स्थल वन्य पशुओं से खचाखच भर गया । यह आश्चर्य था कि वहां वितस्ति जितना भी स्थान खाली नहीं रहा ।
विधातुं गात्र- कण्डूति, त्वया पाद उदञ्चितः । स्थानं रिक्तं समालोक्य, शशकस्तत्र संस्थितः ॥२१॥
२१. तूने अपने शरीर को खुजलाने के लिए एक पांव को ऊंचा किया । तेरे उस पांव के स्थान को खाली देखकर एक खरगोश वहां आ बैठा ।
कृत्वा कण्डूयनं पादं दधता भूतले पुनः । शशको निम्नगोऽलोकि, त्वया तत्त्वं विजानता ॥२२॥
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