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१२ : सम्बोधि
दृश्य, घटना, व्यक्ति या वस्तु को देखकर दर्शक के मन में ईहा उत्पन्न होती है । उसका मन आन्दोलित हो उठता है कि यह क्या है ? क्यों है ? कैसे है ? मेरा इससे क्या सम्बन्ध है ? आदि आदि तर्क उसके मन में उत्पन्न होते हैं और वह एक-एक कर सबको समाहित करता हुआ और गहराई में जाता है। अब वह अपोहनिर्णय की स्थिति पर पहुंचता है । फिर वह मार्गणा और गवेषणा करता है - उसी विषय की अंतिम गहराई तक पहुंचने का प्रयत्न करता है । उसके तर्क प्रबल होते जाते हैं और जब वह उस वस्तु में अत्यन्त एकाग्र बन जाता है, तब उसे पूर्वजन्म का ज्ञान प्राप्त होता है और उस जन्म की सारी घटनाएं एक-एक कर सामने आने लगती हैं । जैन दर्शन में इसे जाति - स्मृति- ज्ञान कहा जाता है। इस ज्ञान के बल से व्यक्ति अपने नौ पूर्वजन्मों को जान जाता है ।
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जाति-स्मरण के और भी अनेक कारण हैं—मन और बुद्धि की निर्मलता, शास्त्र-बोध, धार्मिक विचार, ऋजुता, पूर्वजन्म में संसेवित विषयों का श्रवण और दर्शन, स्वप्न, आश्चर्य और तत्सदृश अनुमान आदि । मैं कौन हूं ? कहां से आया हूं ? आदि सूत्रों के मनन और ध्यान से भी जाति-स्मरण की प्राप्ति होती है। ध्यान की गहराई में जब व्यक्ति मननपूर्वक पीछे लौटता है तो स्वयं के पूर्वजन्म को देख लेता है ।
मेरुप्रभाsभिधो हस्ती, त्वमासीः पूर्वजन्मनि । विन्ध्यस्योपत्यकाचारी, विहारी स्वेच्छया वने ॥ १५॥
१५. भगवान् ने कहा - मेघ ! तू पूर्वजन्म में 'मेरुप्रभ' नाम का हाथी था । तू विन्ध्य पर्वत की तलहटी के वन में स्वच्छन्दता से विहार
-करता था ।
व्यधा भयाद् वनवह्नर्मण्डलं योजनप्रभम् ।
लब्धपूर्वानुभूतिस्त्वं दीर्घकालिक संज्ञितः ॥ १६॥
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१६. उस समय तू समनस्क था । तुझे पूर्वजन्म की स्मृति हुई । तूने दावानल से बचने के लिए चार कोस का स्थल
बनाया ।
घासा उत्पाटिताः सर्वे, लता वृक्षाश्च गुल्मकाः । अकारीभैः सप्तशतैः, स्थलं हस्ततलोपमम् ॥१७॥
१७. तूने सात सौ हाथियों का सहयोग पाकर सब घास, लता,
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