Book Title: Digvijaya Mahakavya
Author(s): Meghvijay, Ambalal P Shah
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
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दिग्विजयमहाकाव्य-प्रस्तावना।
मुनिराज श्रीदर्शनविजयजी द्वारा संपादित 'पट्टावलीसमुच्चय' नामना ग्रंथमां मुनिवर्य श्रीचारित्रविजयजी ए आलेखेली पृ० १०९ परनी 'गुरुमाला' मां श्रीमेघविजय उपाध्यायनो परिचय आपेलो छे पण ए परिचय अभ्रान्त नथी; केमके ते समयमां कंईक आगळपाछळ मेघविजय नामना बे विद्वानो थया छे. तेमांथी एक तो श्रीविजयसेनसूरिना हस्तदीक्षित शिष्य हता अने तेओ ठेठ श्रीविजयरत्नसूरि सुधी लगभग सोथीये वधु वर्षों सुधी जीवित रही, छेवट सुधी रचना कर्य जाय ए संभवित नथी. तेथी ए मेघ विजय तो विजयतिलकसूरिरास' मां जणावेला नंदिविजय वाचकना समानशील सहकारी हता अने जेमने सं० १६५६ मां उपाध्यायपदवी आप्यानुं सूचन 'विजयप्रशस्तिमहाकाव्य' ना पृष्ठ ५९७-९८ मां करायुं छे. पण आ मेघविजय तो ते पछी थयेला श्रीकृपाविजयना शिष्य हता. छतां आ बंने मेघविजयने एक समजी लई तेमा वर्णन करेलुं छे. तेमना शिष्योनुं वंशवृक्ष पण तेमां सूचवेलुं छे ते पण एज रीते सेळभेळ नामोनुं बनेलं होवाथी वास्तविक नथी. छतां श्रीमेघविजयनुं शिष्यमंडळ मोटुं हशे तेमां शक नथी. तेमणे नीचे जणावेला ग्रंथोनी प्रशस्तिमा केटलाक ग्रंथो तो पोताना अमुक अमुक शिष्योने भणवा माटे बनाव्या; एबुं सूचन नामोल्लेखपूर्वक कयु छे.
तेमना गुरु श्रीकृपाविजयजीनी 'श्रीविजयप्रभसूरि निर्वाणरास' सिवाय कोई रचना उपलब्ध थई नथी छतां तेओ मोटा कवि हता ए तेमणे ज्या त्यां करेला उल्लेखोथी जणाई आवे छे. वळी तेओ षट्दर्शनना प्रखरवेत्ता अने साहित्य तेमज सिद्धान्तना पण्डित हता. श्रीकृपाविजयजीना दीक्षा अने शिक्षा गुरु क्रमशः श्रीकमलविजयजी अने श्रीसिद्धिविजयजी हता. ते बन्ने गुरुओए सन्मानक नगरमां लुम्पाकोने हरावी जयश्री प्राप्त करी हती.' तेमना गुरुओनुं वंशवृक्ष आ प्रमाणे छे:
हीरविजयसूरि
कनकविजय
शीलविजय
कमलविजय
सिद्धिविजय
चारित्रविजय
कृपाविजय
मेघविजय कविना ग्रंथोमा छेल्लामां छेल्लु सं० १७६० मां रचायेखें 'सप्तसंधानमहाकाव्य' मळी आवे छे अने 'विजयदेवमाहात्म्यविवरण' जेनी लिपि सं० १७०९ मां थयानी पहेलवहेली रचना साल मलेले आम १ "यः पदतर्कवितर्ककर्कशमतिः साहित्य-सिद्धान्तवित् प्राणम्रक्षितिपः कृपादिविजयः प्राज्ञो विनेयस्तयोः । तत्पादाम्बुजभृङ्गमेघविजयोपाध्यायलब्धाऽऽत्मना ग्रन्थो मेरुमहीधरावधिरयं सिद्धिश्रियै नन्दतात्"॥१६॥
-युक्तिप्रबोधनाटक, प्रान्तप्रशस्ति । २ "आद्यः श्रीकमलादिमश्च विजयस्तस्यानुजन्मा बुधः श्रीसिद्धेर्विजयोऽत्र तो मम गुरोर्दीक्षाऽनुशिक्षागुरू। श्रीसन्मानकनानि धान्नि महसो द्रों विजित्य क्षणालम्पाकेन्द्रगणान् जयश्रियममू संप्रापतुर्विश्रुताम् ॥१५॥
-युक्तिप्रबोधनाटक, प्रान्तप्रशस्ति ।
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