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[ब]
परिहार, अकर्म-मूलकर्म का छेद, निष्कर्मदर्शी का स्वरूप, सत्य में धृति, पाप-क्षपण, अनेकचित्तता, निस्सारता दर्शन आदि उपदेश, कोधादि त्याग से आने वाली लघुभूतता, धीर का लक्षण | ३ तृतीय उद्देशक:
अन्योन्य शंका से पापकर्म न करने मात्र से मुनि नहीं कहला सकता, नैयिक मुनिस्त्र, पूर्वापरविचारशून्यता, योगीश्वर स्वरूप, आत्ममित्रता, कर्मविनाश और मोक्ष, प्रमत्त - श्रप्रमत्त लक्षण |
४ चतुर्थ उद्देशक:
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२६१
कषायत्याग, कर्म-भेदन, एक और सर्वज्ञान की व्याप्ति, प्रमत्त को भय, एक बहु- क्षपण व्याप्ति, लोकसंयोग के त्याग से होने वाला निर्वाण और परम-पद-प्राप्ति, संयम ( शस्त्र) की श्रेष्ठता, क्रोधादि की परम्परा, परमार्थदृष्ट्रा का निरुपाधित्व |
२३७
४ सम्यक्त्व अध्ययन
१ प्रथम उद्देशकः—
तीर्थङ्कर भाषित शुद्धधर्म-अहिंसा, लोकैषणा का त्याग, आसक्ति से भवभ्रमण, धीर का अप्रमाद |
२ द्वितीय उद्देशक:
५. लोकसार अध्ययन
व-निर्जरा की व्याप्ति इच्छाओं के दास का भवभ्रमण, क्रूरताअक्रूरता के फल, केवलि श्रुतकेवलि की एकवाक्यता, हिंसा से अनार्यत्व, हिंसा | ३ तृतीय उद्देशक:
२८१ से ३३७
२८१ २६३
३१३
पाखण्डियों की धर्मबाह्यता, आरम्भ से कर्मबन्ध और दुःख, देह-दमन और आत्मदमन, अग्नि और जीर्णकाष्ठ का दृष्टान्त, क्रोध का त्याग ! ४ चतुर्थ उद्देशकः-
संयम की कठिन साधना, क्रमिक तपश्चर्या, आदान-स्रोत गृद्ध की अनाराध कता, बुद्धिमान् की बुद्धिमत्ता, बीरों की सत्य प्रवृत्ति, परमार्थदृष्टा को निरुपाधित्व |
२६४
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.३.२४
१ प्रथम उद्देशक:
अविरतों की आसक्ति-मृत्यु और संसार, आयु की चञ्चलता, क्रूरकर्माकी परम्परा, जिज्ञासा से परिज्ञान, कुशील त्याग, बाल की द्वितीयबालता, गृद्ध और आरम्भी का भवभ्रमण ।
१२ द्वितीय उद्देशकः -
२६०
.. ३५६
अवसर का ज्ञान, अप्रमत्तता, सुख-दुःख की पृथक्ता, विरति शरीर...
२८०
३१२
३२३
" ३३८ से ५३३
३.३८ ३५५
३३७
३६६