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आप्तवाणी-३
घुमा दे तो आत्मदृष्टि उत्पन्न हो जाएगी। और फिर उस तरफ का दर्शन शुरू हो जाता है, फिर ज्ञान शुरू हो जाता है और अंत में चारित्र शुरू हो जाता है।
'ज्ञानीपुरुष' सिर्फ इतना ही करते हैं कि जो दृष्टि जहाँ-तहाँ बाहर पड़ी हुई थी, उस दृष्टि को दृष्टा में डाल देते हैं। अर्थात् जब दृष्टि मूल जगह पर फ़िट हो जाए, तभी मुक्ति होती है। और जो कुछ हद तक के ही द्रश्यों को देख सकता था, वही सभी द्रश्यों को पूरी तरह से देख और जान सकता है। 'ज्ञानीपुरुष' दृष्टि को दृष्टा में डाल देते हैं, तब 'आपको' पक्का पता चल जाता है कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ।' दृष्टि भी ऐसा बोलती है कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ।' दोनों में अब जुदाई नहीं रही, ऐक्यभाव हो गया। पहले दृष्टि शुद्धात्मा को, खुद के स्वरूप को ढूँढ रही थी, लेकिन मिल नहीं रहा था। अब वह दृष्टि स्वभाव सम्मुख हो गई, इसलिए निराकुलता उत्पन्न होती है, वर्ना तब तक आकुल-व्याकुल रहता है।
देहदृष्टि और मनोदृष्टि से संसार मिलता है और आत्मदृष्टि से मोक्ष मिलता है। आत्मदृष्टि के सामने सभी मार्ग एक हो जाते हैं, वहाँ से आगे का रास्ता एक ही हैं। आत्मदृष्टि, वह मोक्ष का प्रथम दरवाज़ा है।
जहाँ पर लोकदृष्टि है, वहाँ पर परमात्मा नहीं है। जहाँ पर परमात्मा है, वहाँ पर लोकदृष्टि नहीं है।
संसार व्यवहार कैसा... शुद्ध ज्ञान, वही परमात्मा है। 'जैसा है वैसा' यथार्थ दिखा दे, वह शुद्ध ज्ञान है। यथार्थ दिखाने का मतलब क्या है? सभी अविनाशी और विनाशी चीज़ों को दिखाए। और यह विपरीत ज्ञान तो सिर्फ विनाशी चीज़ों को ही दिखाता है। संसार में तो लोग जन्म लेते ही 'तू चंदूलाल है', ऐसा अज्ञान प्रदान करते हैं। उससे इस रोंग बिलीफ़ का उस पर असर हो जाता है कि 'मैं चंदूलाल ही हूँ।' यह विपरीत ज्ञान है। नियम ऐसा है कि जैसी बिलीफ़ होती है, वैसा ही ज्ञान मिल आता है, और फिर वैसा ही वर्तन में आ जाता है। संसार का मतलब क्या है? विपरीत ज्ञान में डुबकियाँ लगाना। अब इसमें से किस तरह से छूट भागे बेचारा!