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आप्तवाणी-३
देर लग जाए तो भी दाल में हाथ डालता रहता है, सब्ज़ी में हाथ डालता रहता है! क्योंकि वह पुद्गल का स्वभाव है।
प्रश्नकर्ता : पुद्गल की सत्ता है न?
दादाश्री : पुद्गल की सत्ता नहीं है। पुद्गल 'व्यवस्थित' के अधीन है।
प्रश्नकर्ता : फिर तो कर्म जैसा कुछ रहा ही नहीं न? पाप-पुण्य भी नहीं रहा न?
दादाश्री : सही बात है। मैं करता हूँ', ऐसा आरोपित भाव ही कर्म है, उसीमें से पुण्य-पाप है। कर्ताभाव गया तो कर्म गए।
प्रश्नकर्ता : परमाणु विजिबल हैं? दादाश्री : परमाणु केवलज्ञान से विज़िबल हैं।
प्रश्नकर्ता : कर्म का जो भोगवटा (सुख-दुःख का असर) आता है, वह 'व्यवस्थित' के ताबे में है?
दादाश्री : हाँ, वह 'व्यवस्थित' के ताबे में है। पुद्गल की सत्ता भी 'व्यवस्थित' के अधीन है। पुद्गल की स्वाभाविक सत्ता नहीं है। यदि पुद्गल स्वतंत्र रूप से सत्ताधीश होता, तब तो किसीको भूख लगती ही नहीं न!
जब अविरत स्थिरता रहे, तब शुद्ध विश्रसा होती है। जब तक प्रयोगसा परमाणु हैं, तब तक वाणी बदलने की सत्ता है। लेकिन मिश्रसा होने के बाद किसीका भी नहीं चलता।
प्रश्नकर्ता : बदलने की वह सत्ता किस तरह काम करती है?
दादाश्री : हमने किसीको गाली दी हो तो उसके परमाणु अंदर बंध जाते हैं। जैसे भाव से बंधे हों, उन परमाणुओं के हिसाब से फिर अंदर बैटरियाँ तैयार हो जाती हैं। ये तो बैटरियाँ ही चार्ज होती हैं, लेकिन हम अगर थोड़ी देर बाद ऐसा बोलें कि, 'भाई मैंने यह गाली दे दी, वह मेरी बहुत बड़ी भूल हो गई।' तो पहलेवाला मिट जाएगा। लेकिन प्रयोगसा से