________________
आप्तवाणी - ३
११७
आप आत्मा स्वरूप ही हो और आत्मस्वरूप में कभी मरते ही नहीं, सिर्फ 'बिलीफ़' ही मरती है ।
प्रश्नकर्ता : हर एक के आत्मा एक स्वरूप है, तो फिर हर एक को अनुभव अलग-अलग क्यों होते हैं?
दादाश्री : हर एक आत्मा समसरण मार्ग में है। उसके प्रवाह अलगअलग होने के कारण हर एक को अलग-अलग अनुभव होते हैं। प्रश्नकर्ता : शुद्धात्मा और अशुद्धात्मा दोनों आत्मा एक हैं?
दादाश्री : अशुद्ध तो अपेक्षा के आधार पर कहलाता है। ‘मैं चंदूलाल हूँ' तब अशुद्ध कहलाता है, वह जीवात्मा कहलाता है। और वह रोंग बिलीफ़ फ्रेक्चर हो जाए और राइट बिलीफ़ बैठ जाए तब 'शुद्धात्मा' कहलाता है।
प्रश्नकर्ता : ‘मैं शुद्धात्मा हूँ', ऐसा बोलता हूँ, उसमें कोई प्रचंड अहंकार तो नहीं घुस जाता न?
दादाश्री : नहीं, वह तो ( यह ज्ञान मिलने के बाद) आप खुद ही उसी रूप होकर बोलते हो। खुद के स्वरूप में ही बोले, इसलिए अहंकार नहीं कहलाएगा। जहाँ पर खुद नहीं हो, वहाँ पर 'मैं हूँ' ऐसा माने तो वह अहंकार है I
प्रश्नकर्ता : सच्चे जीववाले किसे कहते हैं ?
दादाश्री : सच्चे जीववाले तो जिसने आत्मा, शुद्धात्मा को जाना, वही खुद कहलाता है। बाकी, इस मंदिर को भगवान मानें तो भगवान कहाँ जाएँ? मंदिर को भगवान कहकर उससे चिपक जाएँ तो भगवान हँसते रहते हैं कि 'अरे, तू अंधा है या क्या? यह मुझे पहचानता नहीं और इस मंदिर से चिपक पड़ा!' मंदिर को ही चेतन मानता है ।
आत्मा मोक्षस्वरूप, तो मोक्ष किसका ?
प्रश्नकर्ता : आत्मा अजर है, अमर है, देह से भिन्न है, तो मोक्ष किसका होता है?