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आप्तवाणी-३
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दादाश्री : द्रव्य और गुण से आत्मा शून्य है और पर्याय से पूर्ण है। आत्मा के द्रव्य, गुण और पर्याय हैं और पुद्गल के भी द्रव्य, गुण और पर्याय हैं। प्रत्येक खुद के पर्याय से पूर्ण है और मूल स्वभाव से शून्य है। खुद स्वभाव में आ जाए तो शून्य है।
आत्मा के पर्याय ज्ञेय के अनुसार हो जाते हैं, लेकिन आत्मा के द्रव्य और गुण ज्ञेय के अनुसार नहीं हो जाते। ज्ञेय हट जाए तो वापस पर्याय भी खत्म होकर अन्य जगह पर चला जाता है। अतः इस प्रकार से पर्याय से पूर्ण है।
प्रश्नकर्ता : द्रव्य और गुण से शून्य किस प्रकार से हो सकता है?
दादाश्री : शून्य अर्थात् यह जगत् जिसे शून्य समझता है, इसका अर्थ वैसा नहीं है। शून्य अर्थात् निर्विकार पद। मन को शून्य करना चाहते हैं, लेकिन मन आत्मा जैसा हो जाए, तब वह शून्य हो जाएगा। अतः आत्मा के सभी गुण प्राप्त हो जाएँ, तब वह शून्य हो जाएगा। मन एक्ज़ोस्ट हो जाएगा तो शून्य हो जाएगा।
पर्याय विनाशी होते हैं और द्रव्य-गुण अविनाशी होते हैं। द्रव्य-गुण सहचारी होते हैं। गुण सभी सहचारी है और पर्याय बदलते रहते हैं।
सिद्ध भगवान में भी द्रव्य, गुण और पर्याय होते हैं, लेकिन उनके सभी पर्याय शुद्ध होते हैं, इसलिए वे सिर्फ 'देखते' और 'जानते' हैं।
वस्तु की सूक्ष्म अवस्था को पर्याय कहते हैं, स्थूल अवस्था को अवस्था कहते हैं। अंग्रेज़ी में फेज़ेज़' कहते हैं न? हालांकि वह भी स्थूल ही कहलाता है।
जिस आत्मा को समझा हूँ, उसे मैं वाणी द्वारा कह रहा हूँ। उसका आप सिर्फ 'व्यू-पोइन्ट' का अर्थ समझ सकते हो, बाकी उसका वर्णन तो अवर्णनीय है।
आत्मा स्वयं ज्ञाता-दृष्टा और परमानंदी है। ये ज्ञेय हैं, तभी वह खुद ज्ञाता है। ज्ञेय-ज्ञाता का संबंध है। इस फूल की पंखुड़ी भी है और फूल भी है, लेकिन पंखुड़ी फूल नहीं है और फूल पंखुड़ी नहीं है, ऐसा है।