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आप्तवाणी - ३
तब भी फजीता करवाती रहती है, तब तेरह सौ रानियों में कब पार आए? अरे, एक रानी को जितना हो तो महामुश्किल हो जाता है ! जीती ही नहीं जाती। क्योंकि मतभेद पड़े कि वापस गड़बड़ हो जाती है ! भरत राजा को तो तेरह सौ रानियों के साथ निभाना होता था । रनिवास से गुज़रें, तो पचास रानियों के मुँह चढ़े हुए होते। अरे, कितनी तो राजा का काम तमाम कर देने के लिए घूमती थीं ! मन में सोचती कि फलानी रानियाँ उनकी खुद की हैं और ये पराई। इसलिए रास्ता कुछ करें। कुछ करें, उस राजा को मारने के लिए, परंतु वह रानियों को प्रभावहीन करने के लिए । राजा के ऊपर द्वेष नहीं, परंतु उन दूसरी रानियों पर द्वेष है । परंतु उसमें राजा तो गया और तू भी तो विधवा हो जाएगी न? तब कहे कि 'मैं विधवा हो जाऊँगी लेकिन उसे भी विधवा कर दूँ, तब सही ! '
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यह हमें तो सारा ताद्रश्य दिखता है । ये भरत राजा की रानी का ताद्रश्य हमें दिखता है कि उन दिनों कैसे मुँह चढ़ा हुआ होगा! राजा कैसा फँसा हुआ होगा? राजा के मन में कैसी चिंताएँ होंगी, वह सभी दिखता है! एक रानी का यदि तेरह सौ राजाओं के साथ विवाह हुआ हो तो राजाओं का मुँह नहीं चढ़ेगा। पुरुष को मुँह चढ़ाना आता ही नहीं।
आक्षेप, कितने दुःखदायी !
सभी कुछ तैयार है, परंतु भोगना नहीं आता, भोगने का तरीक़ा नहीं आता। मुंबई के सेठ बड़े टेबल पर खाना खाने बैठते हैं, लेकिन खाना खाने के बाद, आपने ऐसा किया, आपने वैसा किया, मेरा दिल तू जलाती रहती है बिना काम के । अरे बगैर काम के तो कोई जलाता होगा? न्यायपूर्वक जलाता है। बिना न्याय के तो कोई जलाता ही नहीं। ये लकड़ी को लोग जलाते हैं, लेकिन लकड़ी की अलमारी को कोई जलाता है ? जो जलाने का हो उसे ही जलाते हैं। ऐसे आक्षेप देते हैं । यह तो भान ही नहीं है । मनुष्यपन बेभान हो गया है, नहीं तो घर में तो आक्षेप दिए जाते होंगे? पहले के समय में घर के व्यक्ति एक-दूसरे पर आक्षेप नहीं लगाते थे। अरे, लगाना हो तब भी नहीं लगाते थे । मन में ऐसा समझते थे कि आक्षेप लगाऊँगा तो सामनेवाले को दुःख होगा, और कलियुग में तो चपेट में लेने को घूमते हैं। घर में मतभेद क्यों होना चाहिए?