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आप्तवाणी-३
परम विनय अर्थात् ग्रहण करते रहना। पूज्य लोगों का राजीपा (गुरुजनों की कृपा और प्रसन्नता) प्राप्त करना। फिर भले ही वे मारें-कूटें, लेकिन वहीं पर पड़े रहना! अविनय के सामने विनय करना, उसे गाढ़ विनय कहते हैं और अविनय से दो थप्पड़ मार दे, तब भी विनय रखना, उसे परम अवगाढ विनय कहते हैं। यह परम अवगाढ विनय जिसे प्राप्त हो गया, वह मोक्ष में जाता है। उसे सद्गुरु या किसी की भी ज़रूरत नहीं है। स्वयं बुद्ध बनेगा, उसकी मैं गारन्टी देता हूँ।
दोनों परिणाम, स्वभाव से ही भिन्न दो प्रकार के परिणाम हैं : एक पौद्गलिक परिणाम और दूसरा आत्मपरिणाम-चेतन परिणाम।
जब तक चेतन को जाना नहौं, तब तक चेतन परिणति किस प्रकार से उत्पन्न होगी? उसे तो ठेठ तक पौद्गलिक परिणति ही रहती है। आपको इस 'अक्रम विज्ञान' के कारण चेतन परिणति उत्पन्न हुई है। पहले चेतन परिणाम और पुद्गल परिणाम की दोनों धाराएँ साथ में रहती थीं। भीले ही दीया जल रहा हो, लेकिन अंधे के लिए क्या? जिसे 'मैं शुद्धात्मा हूँ' और 'मैं चंदूलाल नहीं हूँ' ऐसा विभाजन नहीं हुआ, उसे निरंतर पुद्गल परिणति ही रहती है। और जिसमें विभाजन हो गया है, वह शुद्ध परिणामी कहलाता है।
बात को सिर्फ समझना ही है। जो कर्म हैं, वे पदगल स्वभाव के हैं। वे उनके परपरिणाम बताते ही रहेंगे। हम शुद्धात्मा अर्थात् स्वपरिणाम हैं। परपरिणाम 'ज्ञेय स्वरूपी' है और खुद 'ज्ञाता स्वरूपी' है।
हर एक जीव मात्र में स्वपरिणाम और परपरिणाम उत्पन्न होते ही रहते हैं। रोंग बिलीफ़ के कारण परपरिणामों को स्वपरिणाम मानता है। 'देखो, दाल-चावल और सब्जी मैंने बनाई' कहेगा। हम कहें कि 'आपको दाल-चावल बनाने का ज्ञान था?' तब कहता है कि, 'यह ज्ञान मैं जानता हूँ और यह क्रिया भी मैं ही करता हूँ।' अतः अज्ञानी इन दोनों परिणामों को एक कर देता है। 'ज्ञानी' तो ज्ञानक्रिया के कर्ता होते हैं, अज्ञान क्रिया के कर्ता नहीं होते। कोई भी क्रिया, वह अज्ञान क्रिया कहलाती है। स्वपरिणाम और परपरिणाम को एक करने से बेस्वाद हो जाता है।