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आप्तवाणी-३
तो दर्शन ही कहाँ से हो पाएँगे? ज्ञान की प्राप्ति करने के लिए 'ज्ञानी' को पहचान! और कोई रास्ता नहीं है। ढूँढनेवाले को मिल ही जाते हैं!
दृष्टि बदले, तभी काम होता है प्रश्नकर्ता : किस तरह से आत्म-स्वभाव को प्राप्त करें, यही आराधना माँगते हैं।
दादाश्री : स्वभाव को प्राप्त करना, उसीको सम्यक् दर्शन कहते हैं। एक बार समकित प्राप्त किया तो दृष्टि बदल जाती है। 'जगत् की विनाशी चीज़ों में सुख है' जो ऐसे भाव दिखाती है, वह मिथ्यादृष्टि है। दृष्टि 'इस ओर' घूम जाए तो आत्मा का ही स्वभाव दिखता रहेगा, वह स्वभाव-दृष्टि कहलाती है। स्वभाव-दृष्टि अविनाशी पद को ही दिखाती रहती है ! दृष्टिफेर से यह जगत् विद्यमान है। 'ज्ञानीपुरुष' के अलावा अन्य कोई आपकी दृष्टि नहीं बदल सकता। 'ज्ञानीपुरुष' दिव्यचक्षु देते हैं, प्रज्ञा जागृत कर देते हैं तब दृष्टि बदल जाती है। अपना खुद का आत्मा तो दिखता है, लेकिन दूसरों के भी आत्मा दिखते हैं, 'आत्मवत् सर्व भूतेषु' हो जाता है।
प्रश्नकर्ता : दृष्टि, द्रश्य और दृष्टा के बारे में समझाइए।
दादाश्री : द्रश्य और दृष्टा, ये दोनों हमेशा अलग ही होते हैं। द्रश्य कहीं किसी दृष्टा से चिपक नहीं पड़ता। होली को देखें तो क्या उससे आँख जल जाएँगी? दुनिया में क्या-क्या है? द्रश्य और ज्ञेय, वैसे ही दृष्टा और ज्ञाता! इन पाँच इन्द्रियों से जो कुछ दिखता है, वे सभी ज्ञेय हैं, द्रश्य हैं, लेकिन इनमें दृष्टा कौन है?
जिस दिशा में आपका मुखारविंद होता है, उस तरफ का (बाह्य) दर्शन होता है, इसलिए फिर दूसरी तरफ (आत्मा की तरफ) का नहीं दिखता। जिस दिशा में दृष्टि होती है, उसी दिशा में ज्ञान-दर्शन-मन-बुद्धिचित्त-अहंकार सभी प्रवृत्त हो जाते हैं। जिस तरफ दृष्टि है, उस तरफ का ज्ञान प्रवर्तन में आ जाता है। उसे दर्शन-ज्ञान और चारित्र कहा है। अब जो यह देहदृष्टि, मनोदृष्टि, संसारदृष्टि थी, उसे यदि कोई आत्मा की तरफ