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आप्तवाणी-३
कैसा कहलाए? घर में दख़ल करने जाओगे तो आपको कौन खड़ा रखेगा? बासुंदी तेरे थाली में रखें तो खा लेना, वहाँ ऐसा मत कहना कि 'हम मीठा नहीं खाते।' जितना परोसा जाए उतना आराम से खाना। खारा परोसे तो खारा खा लेना। बहुत नहीं भाए तो थोड़ा खाना, परंतु खाना ज़रूर! 'गेस्ट' के सभी नियम पालना। 'गेस्ट' को राग-द्वेष नहीं करने होते हैं, 'गेस्ट' रागद्वेष कर सकते हैं? वे तो विनय में ही रहते हैं न? ।
हम तो 'गेस्ट' के तौर पर ही रहते हैं, हमारे लिए सभी वस्तुएँ आती हैं। जिनके वहाँ 'गेस्ट' के तौर पर रहें, उन्हें परेशान नहीं करना चाहिए। हमें सारी चीजें घर बैठे मिल जाती हैं, याद करते ही हाज़िर हो जाती हैं और हाज़िर नहीं हो तो हमें परेशानी भी नहीं। क्योंकि वहाँ 'गेस्ट' बने हैं। किसके वहाँ? कुदरत के घर पर! कुदरत की मर्जी न हो तो हम समझें कि हमारे हित में है और मर्जी उसकी हो तो भी हमारे हित में है। हमारे हाथ में करने की सत्ता हो, तो एक तरफ दाढ़ी उगे और दूसरी तरफ दाढ़ी नहीं उगे तो हम क्या करें? हमारे हाथ में करने का होता तो सब घोटाला ही हो जाता। यह तो कुदरत के हाथों में है। उसकी कहीं भी भूल नहीं होती, सब पद्धति अनुसार का ही होता है। देखो चबाने के दाँत अलग, छीलने के दाँत अलग, खाने के दाँत अलग। देखो, कितनी सुंदर व्यवस्था है! जन्म लेते ही पूरा शरीर मिलता है, हाथ, पैर, नाक, कान, आँखें सबकुछ मिलता है, लेकिन मुँह में हाथ डालो तो दाँत नहीं मिलते हैं, तब कोई भूल हो गई होगी कुदरत की? ना, कुदरत समझती है कि जन्म लेकर तुरंत उसे दूध पीना है, दूसरा आहार पचेगा नहीं, माँ का दूध पीना है, यदि दाँत देंगे तो वह काट लेगा! देखो कितनी सुंदर व्यवस्था की हुई है! जैसे-जैसे ज़रूरत पड़ती है, वैसे-वैसे दाँत निकलते जाते हैं। पहले चार आते हैं, फिर धीरे-धीरे दूसरे आते हैं और इन बूढ़ों के दाँत गिर जाते हैं तो फिर वापस नहीं आते हैं।
कुदरत सभी तरह से रक्षण करती है। राजा की तरह रखती है। परंतु अभागे को रहना नहीं आता, तब क्या हो?
पर दख़लंदाज़ी से दुःख मोल लिए रात को हाँडवा पेट में डालकर सो जाता है न? फिर खर्राटें गरड़