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आप्तवाणी-३
आत्मा : परम ज्योतिस्वरूप प्रश्नकर्ता : आत्मा का स्वरूप कुछ भी नहीं है? दादाश्री : आत्मा का ज्ञान स्वरूप और दर्शन स्वरूप है। प्रश्नकर्ता : ज्योतिस्वरूप कहते हैं, वह क्या है?
दादाश्री : यह सामान्य रूप से ज्योतिस्वरूप मानते हैं, वह वैसा नहीं है। अपने यहाँ पर 'इलेक्ट्रिक' के तेज को तेज कहते हैं, वह ऐसा तेज नहीं है।
आत्मा परम ज्योतिस्वरूप है, स्व-पर प्रकाशक है। ज्योतिस्वरूप अर्थात् जब आत्मा के ज्ञान और दर्शन, ये दोनों इकट्ठे हो जाएँ, उसे कहा है। ज्योतिस्वरूप अर्थात् 'वही प्रकाशक है', उसे कहा है। 'इनर-आउटर' सभी वस्तुओं को जानता है; वस्तु को वस्तु के रूप में जानता है और अवस्था को अवस्था के रूप में जानता है। जितना जाने, उतना सुख उत्पन्न होता है।
आत्मा : स्व-पर प्रकाशक प्रश्नकर्ता : आत्मा स्व-पर प्रकाशक है, तो वह स्वप्रकाशक और परप्रकाशक किस प्रकार से है?
दादाश्री : पुद्गल के जितने भी ज्ञेय हैं, वे पूरे ब्रह्मांड के ज्ञेय हैं। उन सब ज्ञेयों को प्रकाशित करनेवाला आत्मा है। खुद ज्ञाता है, दृष्टा है तथा ज्ञेयों और द्रश्यों को प्रकाशित कर सकता है और खुद खुद को भी प्रकाशित कर सकता है। अन्य तत्वों को जानता है तथा खुद ज्ञाता और दृष्टा रहता है।
प्रश्नकर्ता : तो आत्मा स्वप्रकाशक किस प्रकार से हैं?
दादाश्री : खुद के सभी गुणों को जानता है, खुद की अनंत शक्तियों को जानता है, इसलिए स्वप्रकाशक है।
प्रश्नकर्ता : उसका भान होना चाहिए न?! दादाश्री : भान हुए बगैर तो लक्ष्य ही नहीं बैठेगा न!