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आप्तवाणी-३
८९ इस उपयोग में मूल आत्मा खुद कुछ करता नहीं है।
अशुद्ध उपयोग अर्थात् मनुष्य को मार डाले, मनुष्य का माँस खाए। उसका फल नर्कगति।
अशुभ उपयोग अर्थात् कपट करे, मिलावट करे, स्वार्थ के लिए झूठ बोले, क्रोध-मान-माया-लोभ करे, वह सारा अशुभ उपयोग। उसका फल तिर्यंचगति, जानवरगति।
शुभ उपयोग अर्थात् मन की शक्ति, वाणी की, देह की, अंत:करण की सभी शक्तियों का औरों के लिए उपयोग हो, वह ! संपूर्ण शुभ में रहे तो देवगति प्राप्त करता है और शुभाशुभवाला मनुष्य में आता है।
'शुद्ध उपयोग' अर्थात् 'मैं शुद्धात्मा हूँ और यह मैं नहीं कर रहा हूँ लेकिन अन्य कोई कर रहा है' ऐसा भान हो जाए, खुद शुद्ध में रहे
और सामनेवाले का शुद्धात्मा देखे, वह। कोई गालियाँ दे, जेब काट ले, फिर भी उसके शुद्धात्मा ही देखे, वह शुद्ध उपयोग! जगत् पूरा निर्दोष दिखता है उसमें। 'मैं शुद्धात्मा हूँ', जब से यह लक्ष्य बैठे, तब से ही शुद्ध उपयोग की शुरूआत होती है, और संपूर्ण शुद्ध उपयोग को केवलज्ञान कहा है।
शुद्ध उपयोग के अलावा अन्य कोई पुरुषार्थ नहीं है। शुद्ध उपयोग को चूकना, उसे प्रमाद कहा है। एक क्षण के लिए भी गाफिल नहीं रहना चाहिए। यह ट्रेन सामने से आ रही हो तो वहाँ पर गाफिल रहते हो? जब कि यह तो अनंत जन्मों की भटकन है, तो वहाँ पर गाफिल कैसे रह सकते हैं?
प्रश्नकर्ता : उपयोग, एक्जेक्टली किसे कहते हैं?
दादाश्री : ये पैसे गिनते हो, सौ-सौ के नोट, तब कैसा उपयोग रहता है आपको? उस घड़ी उपयोग चूक जाते हो? मैं तो कभी भी रुपये गिनने में उपयोग न दूं। इसमें उपयोग देने से कैसे चलेगा? इसमें तो मेरा महामूल्यवान उपयोग बिगड़ेगा। उपयोग बेकार जाता है, इसका किसीको पता ही नहीं चलता। आत्मा का संपूर्ण उपयोग, उल्टा ही खर्च हुआ है।