Book Title: Aptavani Shreni 03
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 310
________________ आप्तवाणी-३ २६१ चुकता हो जाएगा। लक्ष्मी तो ग्यारहवाँ प्राण है। इसलिए किसी की लक्ष्मी अपने पास नहीं रहनी चाहिए। अपनी लक्ष्मी किसी के पास रहे तो उसमें परेशानी नहीं है। परंतु ध्येय निरंतर वही रहना चाहिए कि मुझे पाई-पाई चुका देनी है, ध्येय लक्ष्य में रखकर फिर आप खेल खेलो। खेल खेलो लेकिन खिलाड़ी मत बन जाना, खिलाड़ी बने कि आप खत्म हो जाओगे। ...जोखिम समझकर, निर्भय रहना हरएक व्यापार उदय-अस्तवाला होता है। मच्छर बहुत हों तब भी सारी रात सोने नहीं देते और दो हों तब भी सारी रात सोने नहीं देते! इसलिए आप कहना, 'हे मच्छरमय दुनिया! दो ही सोने नहीं देते तो सभी आओ न!' ये सब जो नफा-नुकसान हैं, वे मच्छर कहलाते हैं। नियम कैसा रखना? हो सके तब तक समुद्र में उतरना नहीं, परंतु उतरने की बारी आ गई तो फिर डरना मत। जब तक डरेगा नहीं तब तक अल्लाह तेरे पास हैं। तू डरा कि अल्लाह कहेंगे कि 'जा औलिया के पास!" भगवान के वहाँ रेसकॉर्स या कपड़े की दुकान में फर्क नहीं है, लेकिन आपको यदि मोक्ष में जाना हो तो इस जोखिम में मत उतरना। इस समुद्र में प्रवेश करने के बाद निकल जाना अच्छा। हम व्यापार किस तरह करते हैं, वह पता है? व्यापार की स्टीमर को समुद्र में तैरने के लिए छोड़ने से पहले पूजाविधि करवाकर स्टीमर के कान में फूंक मारते हैं, 'तुझे जब डूबना हो तब डूबना, हमारी इच्छा नहीं है।' फिर छह महीने में डूबे या दो वर्ष में डूबे, तब हम 'एडजस्टमेन्ट' ले लेते हैं कि छह महीनें तो चला। व्यापार मतलब इस पार या उस पार। आशा के महल निराशा लाए बगैर रहते नहीं हैं। संसार में वीतराग रहना बहुत मुश्किल है। वह तो हमारी ज्ञानकला और बुद्धिकला ज़बरदस्त हैं, उससे रहा जा सकता है। ग्राहकी के भी नियम हैं प्रश्नकर्ता : दुकान में ग्राहक आएँ, इसलिए मैं दुकान जल्दी खोलता हूँ और देर से बंद करता हूँ, यह ठीक है न?

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