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आप्तवाणी-३
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व्यवहार, कितना अधिक पराश्रित यह सारा ही परपरिणाम हैं और फिर अपने हाथ में नहीं है, पराश्रित है। सारा व्यवहार पराश्रित है। पराश्रित में धर्म करने जाए तो वह किस तरह से हो पाएगा? फिर भी वह एक प्रकार का मार्ग है। लेकिन वह तो जब ज्ञानी होते हैं, तीर्थंकर होते हैं तभी ठीक से चलता है, नहीं तो कोई अर्थ नहीं है। अर्थ इतना ही कहता है कि दारू पीए, इसके बजाय यह करना अच्छा है, ताकि फिसल तो नहीं जाए। बाकी पराश्रित व्यवहार में क्रोधमान-माया-लोभ किस तरह से बंद हो पाएँगे? जगत् उसे बंद करने जाता है। अपना 'अक्रम विज्ञान' क्या कहता है, वह आपको इस बॉल के उदाहरण पर से समझाता हूँ।
'अक्रम' का, कैसा साइन्टिफिक सिद्धांत
जब तक अज्ञानता में होते हैं, तब तक बॉल को फेंकते हैं। उसके परिणाम को नहीं जानतें। अब ज्ञान होने के बाद बॉल डालना बंद कर दिया, लेकिन उसे पहले फेंकी थी, इसलिए वह उछलेगी तो सही। पच्चीसपच्चीस बार उछलेगी। हमने फेंकी, वही एक परिणाम अपना था। अब क्रमिक मार्ग में फेंकने के बाद में उछलती हुई इस बॉल को बंद करने जाते हैं और दूसरी तरफ बॉल का फेंकना जारी रखते हैं। अतः पीछे से बंद करता जाता है और आगे डालता जाता है। उसका तो कब अंत आएगा? हम क्या करते हैं कि बॉल को डालना बंद कर देते हैं और फिर जो परिणाम उछलते हैं, उन्हें 'देखते' रहने को कहते हैं। ये परिणाम तो डिस्चार्ज के रूप में हैं, इसलिए अपने आप ही बंद हो जाएँगे। 'हम' अंदर हाथ नहीं डालें, बस इतना ही देखना है अब।
प्रश्नकर्ता : परपरिणाम में जाने से किसी भी प्रकार की उलझन होती है क्या?
दादाश्री : परपरिणाम में सिर्फ उलझनें ही हैं। उसमें जाना ही मत। पर-परिणाम को देखना है। यह बॉल अपने परिणाम से डला था, उसके बाद से फिर परपरिणाम। अब आपको सिर्फ भाव बंद कर देने हैं। ये भाव बंद किस तरह से होंगे? वे 'ज्ञानीपुरुष' को सौंप दिए, तो उनसे छूटा जा सकता