Book Title: Aptavani Shreni 03
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 307
________________ २५८ आप्तवाणी-३ समय मोह ने घेर लिया हुआ होता है। तब मूर्छा होती है। बाकी कलेजा तो सारा दिन चाय की तरह उबल रहा होता है! तब भी मन में होता है कि 'मैं' तो जेठानी हूँ न! यह तो व्यवहार है, नाटक करना है। यह देह छूटी इसलिए दूसरी जगह नाटक करना है। ये रिश्ते सच्चे नहीं हैं, ये तो संसारी ऋणानुबंध हैं। हिसाब पूरा हो जाने के बाद बेटा माँ-बाप के साथ नहीं जाता है। 'इसने मेरा अपमान किया!' छोड़ो न! अपमान तो निगल जाने जैसा है। पति अपमान करे तब याद आना चाहिए कि यह तो मेरे ही कर्म का उदय है और पति तो निमित्त है, निर्दोष है। और मेरे कर्म के उदय बदलें, तब पति 'आओ-आओ' करता है। इसलिए आपको मन में समता रखकर निबेड़ा ला देना है। यदि मन में हो कि 'मेरा दोष नहीं है फिर भी मुझे ऐसा क्यों कहा?' इससे फिर रात को तीन घंटे जगती है और फिर थककर सो जाती है। जो भगवान के ऊपरी हुए, उनका काम हो गया और पत्नी के ऊपरी बन बैठे, वे सब मार खाकर मर गए। ऊपरी बने, तभी मार खाता है। लेकिन भगवान क्या कहते हैं? 'हमारा ऊपरी बने तो हम खुश होते हैं। हमने तो बहुत दिन ऊपरीपन भोगा, अब आप हमारे ऊपरी बनो तो अच्छा।' 'ज्ञानीपुरुष' जो समझ देते हैं, उस समझ से छुटकारा होता है। समझ के बिना क्या हो सकता है? वीतराग धर्म ही सर्व दुःखों से मुक्ति देता है। घर में तो सुंदर व्यवहार कर डालना चाहिए। 'वाइफ' के मन में ऐसा होना चाहिए कि ऐसा पति नहीं मिलेगा कभी और पति के मन में ऐसा होना चाहिए कि ऐसी 'वाइफ' भी कभी नहीं मिलेगी!! ऐसा हिसाब ला दें तब आप सही!!!

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