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आप्तवाणी-३
है। उसके बाद फिर ज्ञानी की आज्ञा में ही रहना चाहिए। यह तो निरंतर समाधि देनेवाला प्रत्यक्ष विज्ञान है। बॉल को फ़ेकने के बाद में बंद करना और बॉल डालने की प्रक्रिया को जारी रखना, वह साइन्टिफिक रास्ता नहीं है। तूने बॉल डालना बंद कर दिया तो परपरिणाम अपने आप बंद हो ही जाएगा!
इसीलिए इस 'अक्रम मार्ग' में हम किसीकी पात्रता नहीं देखते। क्रिया की तरफ मत देखना। 'उसने' बॉल डालना बंद कर दिया, उसके बाद क्रिया की तरफ नहीं देखना है। हमसे ‘स्वरूप ज्ञान' प्राप्त कर जाए, उसे पूरी तरह से समझ जाए, उसके बाद फिर वह क्रोध करे तो भी हम कहते हैं कि यह 'डिस्चार्ज' के रूप में है। वह क्रमशः बंद हो ही जाएगा। डिस्चार्ज किसीके हाथ में है ही नहीं। डिस्चार्ज को 'देखने' की और 'जानने' की ज़रूरत है।
पुद्गल पारिणामिक भाव से रहा है शुद्धात्मा का पारिणामिक भाव और पुद्गल का पारिणामिक भाव, वे दोनों अलग ही हैं।
प्रश्नकर्ता : ऐसा करने से ऐसा होगा, ऐसा होगा, ऐसे आगे-आगे का दिखता है, वह कौन-सा ज्ञान है?
दादाश्री : वह तो पारिणामिक ज्ञान कहलाता है। प्रकृति वायुवाली हो तो यह खाऊँगा तो ऐसा होगा' ऐसा ज्ञान हाज़िर रहे तो वह पारिणामिक ज्ञान कहलाता है। सांसारिक बातों में यह ज्ञान हाज़िर रहता है कि 'यह खाऊँगा या यह करूँगा तो उसका परिणाम यह आएगा।' कॉज़ होने से पहले इफेक्ट क्या होगा, वह समझ में आ जाता है।
प्रश्नकर्ता : ये क्रियाएँ करते हैं, उनका फल मिलता है। यदि फल की भावना के बिना करे, तो भी फल मिलेगा?
दादाश्री : जलने की भावना के बगैर अंगारों में हाथ डालेगा तो जल जाएगा। वैसा ही पारिणामिक है। तुरन्त ही फल देता है, छोड़ता नहीं है। यह जगत् भी वैसा ही है। हर एक चीज़ पारिणामिक स्वभाव में है। परिणाम आते ही हैं।