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आप्तवाणी-३
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'ज्ञानी' में अहंकार नहीं होता, इसलिए वे दु:ख नहीं भोगते। जब तक आत्मा का अस्पष्ट वेदन है, तब तक दुःख को वेदता है, यानी कि दुखती हुई दाढ़ के ज्ञाता-दृष्टा रहने के प्रयत्न करता है। जब कि 'ज्ञानीपुरुष' कि जिन्हें आत्मा का स्पष्ट वेदन रहता हैं, वे दुःख को वेदते नहीं हैं, लेकिन मात्र जानते हैं। 'स्वरूप ज्ञान वाले की दाढ़ दुःख रही हो तो वह दुःख नहीं भोगता, लेकिन उसका उसे बोझ लगता रहता है, खुद का सुख रुक जाता है, जब कि हमारा सुख रुक नहीं जाता, आता ही रहता है। लोग समझते हैं कि 'दादा' को अशाता वेदनीय हैं, लेकिन हम पर वेदनीय असर नहीं रहता! व्यवहार में वेदनीय माना जाता है।
प्रश्नकर्ता : यह शाता-अशाता वेदनीय आत्मा को नहीं होती?
दादाश्री : नहीं, आत्मा को वेदन होता ही नहीं है। आत्मा यदि कभी अशाता को वेदे तो वह आत्मा ही नहीं है। आत्मा खुद अनंत सुख का धनी हैं! बर्फ पर यदि अंगारे रखे हों तो बर्फ जलेगा क्या?
प्रश्नकर्ता : अंगारे बुझ जाएँगे।
दादाश्री : यह तो स्थूल उदाहरण है, एक्ज़ेक्ट नहीं है। आत्मा तो अनंत सुख का धनी हैं, उसे दुःख छूएगा ही कैसे? उसे सिर्फ छूने मात्र से सुख महसूस होता है।
प्रश्नकर्ता : तो यह वेदन कौन भोगता है?
दादाश्री : आत्मा को भोगना नहीं होता, शरीर भी नहीं भोगता है। सिर्फ अहंकार ही करता है कि 'मुझे अशाता हो रही है।' वास्तव में अहंकार भी खुद नहीं भोगता। वह तो सिर्फ अहंकार करता है कि 'मैंने भोगा!' आत्मा ने कभी भी किसी विषय को भोगा नहीं है, सिर्फ इगोइज़म करता है, सिर्फ इतना ही। 'रोग बिलीफ़' से कर्तापन का अहम् उत्पन्न हुआ। 'मैंने यह किया' उसके फल स्वरूप शाता-अशाता का वेदन करता है।
अज्ञानी अशाता वेदनीय कल्पांत करके वेदता है, 'ज्ञानी' ज्ञान में रहकर निकाल करते हैं, जिससे नया कर्म नहीं बँधता। अज्ञानी कर्म बाँधता