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आप्तवाणी-३
शुद्धचेतन टंकोत्कीर्ण स्वभाववाला है। पर-पुद्गल में रहने के बावजूद शुद्धचेतन टंकोत्कीर्ण स्वभाव की वजह से कभी भी तन्मयाकार नहीं हुआ है। एकत्व भाववाला नहीं हुआ है, सर्वथा अलग ही रहा है। सिर्फ भ्रांति से तन्मयाकार भासित होता है। किसी भी वस्तु में शुद्धचेतन मिक्स नहीं हो सकता।
शुद्धचेतन स्थूलतम से सूक्ष्मतम तक के तमाम पौद्गलिक पर्यायों का ज्ञाता-दृष्टा मात्र है, टंकोत्कीर्ण है, केवलज्ञान स्वरूप है।
आत्मा : अव्याबाध स्वरूप
___'मैं शुद्धत्मा हूँ', ऐसा लक्ष्य में बैठ गया, तब से अनुभव श्रेणी शुरू हो जाती है। कोई जंतु पैर के नीचे कुचल गया तो 'उसे' शंका होती है, नि:शंकता नहीं रह सकती। अतः तब तक 'चंदूलाल' से 'आपको' प्रतिक्रमण करवाना पड़ेगा कि 'चंदूलाल, आपने जंतु को कुचला, इसलिए प्रतिक्रमण करो।' ऐसे करते-करते सूक्ष्म भाव की अनुभव श्रेणी प्राप्त होगी और खुद का स्वरूप अव्याबाध स्वरूप है, ऐसा लगेगा, दिखेगा और अनुभव में आएगा। उसके बाद शंका नहीं होगी। तब तक तो जप आत्मा, तप आत्मा, त्याग आत्मा, सत्य आत्मा में रहता है, वह शुद्धात्मा में नहीं है। उसे श्रेणी नहीं कहते। अर्थात् वह व्यक्ति मोक्ष में जाएगा या कहीं ओर जाएगा, यह कहा नहीं जा सकता। शुद्धात्मा का लक्ष्य बैठने के बाद में श्रेणियों की शुरूआत होती हैं, उसके बाद खुद का स्वरूप अव्याबाध है, सूक्ष्म है, अमूर्त है, ऐसा अनुभव में आता जाता है।
प्रश्नकर्ता : अव्याबाध का मतलब क्या है?
दादाश्री : अव्याबाध का अर्थ यह है कि मेरा स्वरूप ऐसा है कि कभी किसी जीव को किंचित् मात्र भी दुःख नहीं दे सकता और सामनेवाले का स्वरूप भी वैसा ही है कि उसे कभी भी दुःख नहीं हो सकता; उसी प्रकार से हमें भी सामनेवाला दु:ख नहीं दे सकता, ऐसा अनुभव हो जाता है। सामनेवाले को उसका अनुभव नहीं है, लेकिन मुझे तो अनुभव हो गया है, फिर मुझसे किसीको दुःख होगा, ऐसी शंका नहीं रहती। जब तक सामनेवाले को मुझसे दुःख होता है, ऐसी थोड़ी-सी भी शंका रहे तो उसका