________________
१२२
आप्तवाणी-३
सिद्धदशा नहीं हो जाती, तभी तक प्रज्ञा रहती है। प्रज्ञा स्वरूपज्ञान के बाद ही उत्पन्न होती है; जब कि सूझ तो हर एक को समसरण मार्ग के मील पर उत्पन्न होनेवाली बख़्शीश है।
अब जो सूझ पड़ती है, वह भी संपूर्ण स्वतंत्र नहीं है। आत्मा परमात्मस्वरूप है। वह गलत भी नहीं सुझाता और सच भी नहीं सुझाता। वह तो जब पाप का उदय आए तब गलत सूझता है और पुण्य का उदय आए तब सही दिखाता है। आत्मा कुछ भी नहीं करता, वह तो मात्र स्पंदनों को देखता ही रहता है।
प्रश्नकर्ता : समझ और सूझ में फर्क है?
दादाश्री : समझ को सूझ कहते हैं, समझ, वह दर्शन है, वह आगे बढ़ते-बढ़ते ठेठ केवलदर्शन तक जाती है।
यह हम आपको समझाते हैं और आपको उसकी गेड़ बैठना यानी कि वह आपको फुल समझ में आ जाता है। यानी मैं जो कहना चाहता हूँ वह आपको पोइन्ट टु पोइन्ट एक्जेक्टली समझ में आ जाता है। उसे गेड़ बैठी कहा जाता है। हर एक का व्यू पोइन्ट अलग-अलग होता है इसीलिए अलग-अलग तरह से समझ में आता है। हर एक को उसकी दर्शनशक्ति के आधार पर बात फ़िट होती है।
प्रश्नकर्ता : जब सूझ पड़ती है, तब सूझ में सूझ है या अहंकार बोलता है, यह पता नहीं चलता।
दादाश्री : अहंकार के प्रतिस्पंदन हैं इसीलिए मनुष्य सूझ का पूरापूरा लाभ नहीं उठा सकता। सूझ तो हर एक को पड़ती ही रहती है। जैसेजैसे अहंकार शून्यता को प्राप्त करता जाता है, वैसे-वैसे सूझ बढ़ती जाती है।
इन साइन्टिस्टों को सूझ में दिखता है, उन्हें ज्ञान में नहीं दिखता। सूझ, वह कुदरती बख़्शीश है।
उदासीनता किसे कहते हैं? मैं सर्व परतत्वों से सर्वथा उदासीन ही हूँ।