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आप्तवाणी-३
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दादाश्री : वह तो जाल डालती है। मछली ऐसा समझती है कि यह बहुत अच्छे दयालु व्यक्ति है, इसलिए मेरा काम हो गया। लेकिन एक बार खाकर तो देख, काँटा फँस जाएगा। यह तो फँसाववाला है सब।
इसमें प्रेम जैसा कहाँ रहा? घरवालों के साथ नफा हुआ कब कहलाता है कि घरवालों को अपने ऊपर प्रेम आए, अपने बिना अच्छा नहीं लगे और कब आएँगे, कब आएँगे? ऐसा रहा करे।
लोग शादी करते हैं लेकिन प्रेम नहीं है। यह तो मात्र विषयासक्ति है। प्रेम हो तो चाहे जितना भी आपस में विरोधाभास आए, फिर भी प्रेम नहीं जाता। जहाँ प्रेम नहीं होता, वह आसक्ति कहलाती है। आसक्ति मतलब संडास! प्रेम तो पहले इतना सारा था कि पति परदेश गया हो
और वह वापस न आए तो सारी जिंदगी उसका चित्त उसीमें रहता, दूसरा कोई याद ही नहीं आता था। आज तो दो साल पति न आए तो दूसरा पति कर लेती है, इसे प्रेम कहेंगे? यह तो संडास है। जैसे संडास बदलते हैं वैसे! जो गलन है, वह संडास कहलाता है। प्रेम में तो अर्पणता होती
है।
प्रेम मतलब लगनी लगे वह और वह सारा दिन याद आया करे। शादी दो रूप में परिणमित होती है, कभी आबादी में जाती है तो कभी बरबादी में जाती है। जो प्रेम बहुत उफने, वह फिर बैठ जाता है। जो उफने वह आसक्ति है। इसीलिए जहाँ उफान हो, उससे दूर रहना। लगनी तो
आंतरिक होनी चाहिए। बाहर का बक्सा बिगड़ जाए, सड़ जाए फिर भी प्रेम उतने का उतना ही रहे। यह तो हाथ जल गया हो और आप कहो कि, 'ज़रा धुलवा दो।' तो पति कहेगा कि 'ना, मुझसे नहीं देखा जाता।' अरे, उन दिनों तो हाथ सहलाया करता था, और आज क्यों ऐसा? यह घृणा कैसे चले? जहाँ प्रेम है वहाँ घृणा नहीं, और जहाँ घृणा है वहाँ प्रेम नहीं। संसारी प्रेम भी ऐसा होना चाहिए कि जो एकदम कम न हो जाए
और एकदम बढ़ न जाए। नोर्मेलिटी में होना चाहिए। ज्ञानी का प्रेम तो कभी कम-ज्यादा नहीं होता। वह प्रेम तो अलग ही होता है। उसे परमात्मप्रेम कहा जाता है।